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प्राप्तिपरिहारविचारः
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विष आदि पदार्थ अहितरूप माने गये हैं। हेयोपादेयरूप से इन्हें बतला देना यही प्राप्ति है, कोई कहे कि ग्रहण करना तथा हट जाना इस रूप जो प्राप्ति परिहार है उन्हें यहां मानना चाहिए सो उसे आचार्य ने बड़े सुन्दर ढंग से समझाया है, देखो-वे कहते हैं कि पदार्थ को जानना मात्र ही प्रमाण का काम है, प्रमाण से पदार्थ को जान कर उसमें प्रवृत्त होना यह तो पुरुष की इच्छा के आधीन है, यदि प्रमाण ही प्रवृत्ति करावेगा तो जगत में चोरी अन्याय क्यों हो ? क्योंकि यह ज्ञान तो सभी को होता है कि इन कार्यों के करने में हानि है। तथा चन्द्र आदि का ज्ञान क्या उसमें प्रवृत्ति करायेगा ? नहीं तो वह तुम्हारी दृष्टि में प्रमाण नहीं ठहरेगा, लेकिन चन्द्र सूर्यादि के ज्ञान को सभी ने सत्यरूप से स्वीकार किया है। इसलिये हेय तथा उपादेय पदार्थ को बतला देना इतना ही प्रमाण का कार्य है, यही उसकी प्राप्ति और परिहार है ऐसा निश्चय हो जाता है।
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