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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे सम्भवात् । न चान्यस्य ज्ञानान्तरस्यार्थप्राप्तौ सन्निकृष्टत्वात्तदेव प्रापकमित्याशङ्कनीयम्; यतो यद्यप्यनेकस्माज्ज्ञानक्षणात्प्रवृत्तावर्थप्राप्तिस्तथापि पर्यालोच्यमानमर्थप्रदर्शकत्वमेव ज्ञानस्य प्रापकत्वम्नान्यत् । तच्च प्रथमत एव ज्ञानक्षणे सम्पन्नमिति नोत्तरोत्तरज्ञानानां तदुपयोगि ( त्वम् ), तद्विशेषांशप्रदर्शकत्वेन तु तत् तेषामुपपन्नमेव । प्रवृत्तिमूला तूपादेयार्थप्राप्तिर्न प्रमाणाधीना-तस्याः पुरुषेच्छाधीनप्रवृत्तिप्रभवत्वात् । न च प्रवृत्त्यभावे प्रमाणस्यार्थप्रदर्शकत्वलक्षणव्यापाराभावो वाच्यः, प्रतीतिविरोधात् । न खलु चन्द्रार्कादिविषयं प्रत्यक्षमप्रवर्तकत्वान्न तत्प्रदर्शकमिति लोके प्रतीतिः । कथं में प्राप्ति का अभाव तो होता नहीं । बौद्ध के यहां माना गया क्षणिक ज्ञान अर्थ की प्राप्ति काल तक ठहरता तो है नहीं फिर वह प्रापक कैसे बने सो इस प्रकार की शंका नहीं करना, क्योंकि प्रमाण में तो प्रदर्शक रूप ही प्राप्ति है और कोई प्राप्ति यहां सम्भव नहीं है । अर्थ प्राप्ति के समय दूसरा ज्ञान आता ही है, उस समीपवर्ती ज्ञान को अर्थप्रापक माना जाय सो ऐसी शंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि यद्यपि अनेक ज्ञानों के प्रवृत्त होने पर ही अर्थ की प्राप्ति होती है तो भी विचार में प्राप्त जो पदार्थ है उसकी प्रदर्शकता ही ज्ञान की प्रापकता है अन्य नहीं, ऐसी प्रापकता तो ज्ञान के क्षण में ही हो जाती है, उसके लिये आगे २ के ज्ञान उपयोगी नहीं हैं। हां, उसी पदार्थ में विशेष २ अंशों का प्रदर्शकपना आगे के ज्ञान के द्वारा हो जाय तो इसमें कोई बाधा नहीं है । पदार्थ में प्रवृत्त होने रूप प्राप्ति तो ज्ञान के आधीन नहीं है वह तो पुरुष की इच्छा के आधीन है, यदि ऐसा कहा जाय कि प्रवृत्ति रूप प्राप्ति प्रमाण में न होने के कारण उसमें अर्थ प्रदर्शन रूप प्राप्ति भी नहीं हो सकेगी सो ऐसा नहीं कहना चाहिये क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है, देखो-चन्द्र सूर्य आदि का प्रत्यक्ष जो ज्ञान होता है वह उनमें प्रवृत्ति कराने वाला नहीं होता है अर्थात् उससे इन चन्द्रादि पदार्थों का ग्रहण तो होता नहीं है परन्तु फिर भी वह उनका प्रदर्शक तो होता ही है-और इतने ही मात्र से लोक में वह प्रमाण माना जाता है, मतलब-[ प्रमाण पदार्थों की हेयोपादेयता मात्र बतलाता है न कि वह उसमें प्रवृत्ति कराता है, या निवृत्ति कराता है, प्रवृत्ति आदि कराना तो उस ज्ञाता व्यक्ति की इच्छा के आधीन है, यदि प्रमाण पदार्थों में प्रवृत्ति या उनसे निवृत्ति कराता होता तो जगत् में अन्याय, विषभक्षण, अनर्गल प्रवृत्ति एवं चोरी आदि कुछ भी अनर्थ होते ही नहीं, क्योंकि इनमें हानि है ऐसा ज्ञान तो हो चुका होता है, इसलिये वस्तु में प्रवृत्ति कराना या उससे निवृत्ति कराना यह प्रमाण का कार्य नहीं है, वह तो ज्ञाता व्यक्ति की इच्छा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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