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प्राप्तिपरिहारविचारः चैवंवादिनः सुगतज्ञानं प्रमाणं स्यात् ? न हि हेयोपादेयतत्त्वज्ञानं क्वचित् तस्य प्रवर्तकं कृतार्थत्वात्, अन्यथा कृतार्थता न स्यादितरजनवत् । सुखादिस्वसंवेदनं वा; न हि क्वचित्तत्पुरुषं प्रवर्तयति फलात्मकत्वात्, अन्यथा प्रवृत्त्यनवस्था । व्याप्तिज्ञानं वा न खलु स्वविषयेऽथिनं तत्प्रवर्त यति अनुमानवैफल्यप्रसङ्गात् । ततः प्रवृत्त्यभावेपि प्रवृत्तिविषयोपदर्शकत्वेन ज्ञानस्य प्रामाण्यमभ्युपगन्तव्यम् ।
ननु प्रवृत्त विषयो भावी, वर्तमानो वार्थः ? भावी चेत् ; नासौ प्रत्यक्षेण प्रवर्तयितु शक्यस्तत्र तस्याप्रवृत्त । वर्तमानश्चेत् ; न ; अथिनोऽत्राऽप्रवृत्त,न हि कश्चिदनुभूयमान एव प्रवर्ततेऽनवस्थापत्त:; इत्यसाम्प्रतम् ; अर्थक्रियासमर्थार्थस्य अर्थक्रियायाश्च प्रवृत्तिविषयत्वात् । तत्रार्थक्रियासमर्थार्थोऽध्यक्षेण प्रदर्शयितु शक्यः । न ह्यर्थक्रियावत्सोप्यनागतः । न चाख्याध्यक्षत्वे प्रवृत्त्यभावप्रसङ्गः; अर्थक्रियार्थ
पर निर्भर है ] दूसरी बात यह है कि इस प्रकार से प्रमाण में प्रापकता मानी जावे तो बौद्ध के सुगतज्ञान में प्रमाणता ही नहीं रहेगी, क्योंकि सुगत का हेयोपादेयरूप तत्त्वज्ञान किसी विषय में सुगत की प्रवृत्ति तो कराता नहीं है, क्योंकि वे तो कृतार्थ हो चुके हैं, अन्यथा इतर जन की तरह- ( साधारण मानव की तरह ) उनमें कृतार्थता नहीं रहेगी, इसी तरह सुखादि संवेदन में भी प्रमाणता नहीं आ सकेगी, क्योंकि वे भी किसी भी विषय में पुरुष की प्रवृत्ति नहीं कराते हैं, वे तो फलरूप हैं, यदि ये प्रवृत्ति कराने लग जावेंगे तो ये कारणरूप मानना पड़ेंगे और फिर इनका फल मानना पड़ेगा सो इस प्रकार से अनवस्था आवेगी, सुखसंवेदन की तरह व्याप्ति ज्ञान भी प्रवृत्ति नहीं कराता, क्योंकि वह यदि अपने विषय में प्रवृत्ति करावें तो अनुमान काहे को मानना, क्योंकि साध्य साधन का ज्ञान तो व्याप्ति से ही संपन्न हो गया, इसलिये यही निर्णय मानना चाहिये कि ज्ञान में प्रवृत्ति रूप प्राप्ति कराने का अभाव होने पर भी मात्र उस प्रवृत्ति के योग्य पदार्थ की प्रदर्शकता है, सो यही उसकी प्रमाणता है।
शंका-प्रवृत्ति का विषय रूप पदार्थ भावी है या वर्तमान ? अर्थात् प्रवृत्ति का विषय भावी पदार्थ होता है या वर्तमान पदार्थ होता है ? भावी कहो तो वह प्रत्यक्ष से प्रवृत्त होने योग्य नहीं है, क्योंकि भावी पदार्थ में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं होती है । वर्तमान कहो तो भी ठीक नहीं, क्योंकि अर्थ क्रिया के इच्छुक अनुभूयमान में ही प्रवृत्ति नहीं करता है, यदि ऐसा माना जाय तो व्यवस्था हो नहीं बनेगी, अर्थात् अर्थ प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति हुई थी और वह अर्थ प्राप्ति तो प्रत्यक्ष ही हो गई, फिर क्यों प्रवृत्ति की जाय ?
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