________________
*
*
* प्राप्तिपरिहारविचारः
'तन्नाज्ञानं प्रमाणमन्यत्रोपचारात्' इत्यभिप्रायवान् प्रमाणस्य ज्ञानविशेषणत्वं समर्थयमानः प्राह
हिताऽहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् ।। २ ।। हितं सुखं तत्साधनं च, तद्विपरीतमहितम्, तयोः प्राप्तिपरिहारौ । प्राप्तिः खलपादेयभूतार्थक्रियाप्रसाधकार्थप्रदर्शकत्वम् । अर्थक्रियार्थी हि पुरुषस्तनिष्पादनसमर्थ प्राप्तुकामस्तत्प्रदर्शकमेव प्रमाणमन्वेषत इत्यस्य प्रदर्शकत्वमेव प्रापकत्वम् । न हि तेन प्रदर्शितेऽर्थे प्राप्त्यभावः । न च क्षणिकस्य ज्ञानस्यार्थप्राप्तिकालं यावदवस्थानाभावात्कथं प्रापकतेति वाच्यम् ? प्रदर्शकत्वव्यतिरेकेण तस्यास्तत्रा
___ इस प्रकार अज्ञानरूप वस्तु प्रमाण नहीं होती है यह सिद्ध हुआ, उपचार से चाहे जिसे प्रमाण कह लो, अब माणिक्यनंदी प्राचार्य इसी अभिप्राय को मन में रखते हुए प्रमाण के ज्ञान विशेषण का अग्रिम सूत्र द्वारा समर्थन करते हैंसूत्र-हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् ॥ २ ॥
हित की प्राप्ति और अहित के परिहार कराने में प्रमाण समर्थ है अतः वह ज्ञान ही होना चाहिये ।
सुख और सुख के साधनों को हित कहते हैं, दुःख और दुःख के साधनों को अहित कहते हैं, हित की प्राप्ति और अहित का परिहार प्रमाण के द्वारा होता है, उपादेयभूत स्नानपानादि जो क्रियाएँ हैं उन क्रियाओं के योग्य पदार्थों का ज्ञान कराना प्राप्ति कहलाती है । अर्थ क्रिया को चाहने वाले व्यक्ति अपना कार्य जिससे हो ऐसे समर्थ पदार्थ को प्राप्त करना चाहते हैं ऐसे पदार्थ का ज्ञान जिससे हो उस प्रमाण को वे अर्थ क्रियार्थी ढूढते हैं, इसलिये प्रमाण का जो अर्थ को बतलाना है उसी को यहां प्राप्तिपना- (प्रापकपना) माना है, प्रमाण के द्वारा बतलाये गये पदार्थों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org