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प्रमेयकमलमार्तण्डे त्व प्रकाशन हेतु है । इनका आपस में अविनाभाव है कि नहीं ऐसा हम जान नहीं सकते क्योंकि ज्ञाता का व्यापार अदृश्य है । अनुमान से ज्ञाता का व्यापार जानना और उसका अन्वय जानने के लिये फिर अनुमान लाना ऐसे तरीके से अनवस्था एवं अन्योन्याश्रय दोष आते हैं। अनुपलम्भ हेतु से सिद्ध करो तो वह बनता ही नहीं है, क्योंकि दृश्य-देखने योग्य पदार्थ का अभाव सिद्ध कर सकते हैं, जो स्वयं ही अदृश्य हैं दिखते ही नहीं, उनका क्या तो प्रभाव और क्या सद्भाव, अभाव प्रमाण ज्ञातृ व्यापार का ग्राहक तब हो जब कि कहीं पर वह उपलब्ध हो, जैसे कि घर को पहिले कहीं देखा और पुनः वह उस स्थान पर नहीं दिखा तब उसका अभाव सिद्ध करते हैं, अच्छा-यह ज्ञातृव्यापार किसी कारक ( कारण ) से उत्पन्न होता है या नहीं, सो वहां पर भी बड़ी भारी प्रश्न माला खड़ी होती है-वह क्या सद्भाव रूप है या अभाव रूप है ? नित्य है या अनित्य है ? यदि सद्भावरूप नित्य व्यापार है तो हर एक व्यक्ति को हर समय हर एक पदार्थ का ज्ञान होने से सभी सर्वज्ञ बन जावेंगे, फिर जगत में यह अंधा है यह सोया है यह मूच्छित हुआ है इत्यादि जो व्यवहार होता है वह सब समाप्त हो जावेगा, ज्ञाता का व्यापार यदि अनित्य है तो उससे कोई कार्य होगा नहीं अर्थात् ज्ञातृव्यापार क्षणिक है तो उससे अर्थ प्रकाशन कैसे होगा, दूसरे समय व्यापारान्तर पाता है तो फिर वही अनवस्था आवेगी, तथा ज्ञातृव्यापार यदि कारक से उत्पन्न होगा तो वे कारक क्या अन्य व्यापार की अपेक्षा रखते हैं या नहीं ? यदि रखते हैं तो अनवस्था तैयार है और यदि नहीं रखते हैं तो वे कारक ही स्वतः अर्थ प्रकाशन कर लेंगे, क्योंकि जैसे उन्हें व्यापार को उत्पन्न करने में किसी की अपेक्षा नहीं रही है वैसे ही अर्थ प्रकाशन करने में अर्थ प्रकाशन को पैदा करने में भी ज्ञातृ व्यापार की उन्हें अपेक्षा नहीं रहेगी, अर्थापत्ति से ज्ञात व्यापार की सिद्धि नहीं होती है, क्योंकि अनुमान की तरह वहां अन्यथानुपपद्य मानत्व चाहिये ।
इतना कहने पर भी यदि भाट्ट यों कहें कि अजी हम तो ज्ञातृ व्यापार को ज्ञान स्वरूप मानते हैं, बस अब तो वह प्रमाण ही हो जायगा, सो ऐसी बात भी नहीं बनती, क्योंकि आप लोगों ने ज्ञान को अत्यन्त परोक्ष माना है, और ऐसा ज्ञान तो रवपुष्प के समान असत् है, इस प्रकार ज्ञात व्यापार किसी भी तरीके से प्रमाण रूप सिद्ध होता नहीं है।
* ज्ञातृव्यापार के खंडन का सारांश समाप्त *
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