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ज्ञातव्यापारविचारः
माणत्वात् । सकलज्ञानानां स्वपरव्यवसायात्मकत्वेन व्यवस्थितेः इत्यलं प्रपञ्चन ।
प्रमाण है, इससे बुद्धि जानने योग्य विषयों में--पदार्थों में प्रवृत्त होती है, मतलबजब बुद्धि विषयों की तरफ सन्मुख होती है वह प्रमाण है, तथा वह विषयोन्मुख बुद्धि ही करण है । जब इस प्रकार का व्यापार प्रात्मा में नहीं होता तब जाननारूप कार्य भी नहीं होता, आत्मा और कर्मरूप जो पदार्थ हैं इनका-इन दोनोंका- सबंध है जो कि मानस प्रत्यक्ष के द्वारा जाना जाता है, ऐसा संबंध ज्ञान को पैदा कर देता है, इसलिये ज्ञाता का व्यापार प्रमाणभूत स्वीकार किया गया है। इस प्रकार के प्रभाकर मान्य प्रमाण के लक्षण का जब हम जैन विचार करते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मा का जो पदार्थों को जानने के लिये पदार्थों की तरफ झुकाव होता है जिसे हम जैन सामान्यावलोकन या दर्शन कहते हैं, उस दर्शन को ही ये अन्यमती प्रमाण स्वरूप मान बैठे हैं क्या ?
वास्तविक देखा जाय तो इन सब मतान्तरों में मिथ्यात्व के कारण ऐसी विपरीतता हो गई है कि जिससे ये लोग प्रमाण ही क्या अन्य किसी भी वस्तु का वास्तविक स्वरूप जानते नहीं हैं। इस प्रकार के अप्रमाणभूत ज्ञातृव्यापार का प्राचार्य ने विविध प्रकार से यह खंडन किया है।
ज्ञातव्यापार के खंडन का सारांश प्रभाकर भट्ट की मान्यता है कि पदार्थ को जैसे का तैसा जानने रूप जो ज्ञाता का व्यापार है वही प्रमाण है, किन्तु उनकी यह मान्यता गलत है, क्योंकि वह व्यापार अज्ञान रूप है, तथा उसे जानने के लिये कोई प्रमाण नहीं है, यदि प्रत्यक्ष जानेगा तो कौनसा प्रत्यक्ष जानेगा-स्वसंवेदन या बाह्येन्द्रियज, या कि मनः प्रत्यक्ष ? इन तीनों प्रत्यक्षों में से स्वसंवेदन प्रत्यक्ष प्रज्ञानरूप उस ज्ञातृव्यापार में कैसे प्रवृत्ति करेगा, अर्थात् नहीं करेगा, इन्द्रियां बेचारी अपने संबंधित विषय में ही दौड़ती हैं तथा ज्ञाता के व्यापार के साथ उन इन्द्रियों का कोई सम्बन्ध भी नहीं है। मानस प्रत्यक्ष ज्ञान, ज्ञाता के व्यापार को जानता है ऐसा आप मानते नहीं हो, अनुमान ज्ञान व्यापार को कैसे जाने ? क्योंकि वह तो साध्य साधन के अविनाभावरूप संबंध को जानने के बाद होगा, किन्तु यहां जो ज्ञाता का व्यापार साध्य है और अर्थ तथा
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