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विपक्षेऽनुपलम्भाच्चेत्; न; तस्य सर्वात्मसम्बंधिनोऽसिद्धानैकान्तिकत्वादित्युक्तम् । ततः प्रमाणतोऽचेतनस्वभावज्ञातृव्यापारस्याप्रतीतेः कथमर्थ तथात्वप्रकाशकोऽसौ यतः प्रमाणं स्यात् ।।
प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
ज्ञानस्वभावस्य ज्ञातृव्यापारस्यार्थतथात्वप्रकाशकतया प्रमाणताभ्युपगमान्न भट्टस्यानन्तरोक्ता शेषदोषानुषङ्गः, इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम्; सर्वथा परोक्षज्ञानस्वभावस्यास्यासत्त्वेन प्रतिपादयिष्य
अपने साध्यके साथ अविनाभाव संबंध वाला है ऐसा निश्चय हो ही जायगा, इस तरह निश्चय होने से तो वह अनुमान ही हुआ ग्रर्थापत्ति कहां रही, अर्थात् अनुमान ही अर्थापत्ति रूप हो गया अतः आपकी मान्य प्रमाणसंख्या का व्याघात हो जाता है,
भावार्थ - प्रभाकर ने सद्भाव ग्राहक पांच प्रमाण माने हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमा और प्रर्थापत्ति, अतः यहां पर अनुमान और प्रर्थापत्ति को एक रूप ही मानने पर प्रमाण संख्या का व्याघात हो जाता है ।
दूसरा पक्ष - ज्ञाता का व्यापार और अर्थ प्राकट्य इनकी अन्यथानुपपत्ति का निश्चय साध्य धर्मी में किया है, ऐसा माना जाय तो ऐसा निश्चय कौन से प्रमाण से किया है, यदि कहो कि विपक्ष में अनुपलम्भ से किया है अर्थात् स्तम्भादि में व्यापार का अभाव होने से अर्थ की प्रकटता का अनुपलम्भ है सो ऐसा भी नहीं कह सकते - क्योंकि विपक्ष में अनुपलम्भ किसको है ? सभी को या सिर्फ तुम्हें ही ? सभी को ऐसा अनुपलम्भ हो नहीं सकता, यदि तुम्हें अकेले को ऐसा अनुपलम्भ है तो भी किसी को उपलम्भ होता ही है, अतः हेतु अनैकान्तिक होगा, इसलिये किसी भी प्रमाण के द्वारा अचेतन रूप ज्ञातृ व्यापार है ऐसा जाना नहीं जाता है, फिर उससे अर्थ तथा स्व का प्रकाशनरूप कार्य कैसे होगा जिससे कि वह प्रमाण माना जाय ।
प्रभाकर - हम ज्ञातृव्यापार को ज्ञान स्वभाव वाला मानकर उससे अर्थ प्रकाशन होता है ऐसा मान लेवें तब तो हमारे पक्ष में कोई दोष नहीं आता ।
जैन - ऐसा कथन भी बिना विचारे किया जा रहा है, क्योंकि आपने ज्ञान को सर्वथा परोक्ष माना है, ऐसे ज्ञान का हम आगे निरसन करने वाले हैं । कोई भी ज्ञान हो, वह स्व पर को जानने वाला होता है, यह बात सिद्ध हो चुकी है, अब विशेष कथन से बस ।
विशेषार्थ - प्रभाकर भट्ट अर्थात् जानने वाला जो आत्मा
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ज्ञाता के व्यापार को प्रमाण मानते हैं । ज्ञाता उस आत्मा का जो व्यापार याने प्रवृत्ति है वही
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