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________________ ज्ञातृव्यापारविचार: प्रायम्; अर्थप्राकट्यं हि ततो भिन्नम्, अभिन्न वा ? यद्यभिन्नम् ; तदाऽर्थ एवेति यावदर्थं तत्सद्भावात्सुताद्यभावः । भेदे - सम्बन्धासिद्धिरनुपकारात् । उपकारेऽनवस्था । किञ्च एतदन्यथानुपपद्यमानत्वेनिश्चितं तं कल्पयति, निश्चितं वा ? न तावदनिश्चितम् ; अतिप्रसङ्गात् - तथाभूतं हि तद्यथा तं कल्पयति तथा येन विनाप्युपपद्यते तदपि किं न कल्पयत्य विशेषात् ? निश्चितं चेत्; क्व तस्यान्यथानुपपन्नत्वनिश्चयः-दृष्टान्ते साध्यधर्मिणि वा ? दृष्टान्ते चेत्; लिङ्गस्यापि तत्र साध्यनियतत्वनिश्चयोऽस्तीत्यनुमानमेवार्थापत्तिरिति प्रमाणसंख्याव्याघातः । साध्यधर्मिण्यपि कुतः प्रमाणात्तस्य तन्निश्चयः ? एकरूप है तब तो अर्थ हमेशा ही बना रहता है इससे उसकी सदा प्रकटता होती रहने से सुप्तादि व्यवहार ही समाप्त हो जायगा । यदि व्यापार से अर्थ प्रकटता भिन्न है तो ऐसी स्थिति में इनमें संबंध न होने से कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि इससे उसका कुछ उपकार तो होगा नहीं, यदि कुछ उपकार होगा भी तो अनवस्था प्राती है, अर्थात् उप कार का उपकार करने में सम्बन्ध नहीं जाना जाता है । अतः फिर दूसरे उपकार की, फिर तीसरे उपकार की अपेक्षा श्राती जावेगी, तथा हम जैनों का एक यह प्रश्न है कि वह अर्थप्राकट्य अन्यथानुपपत्तिरूप से निश्चित होकर उस ज्ञातृव्यापार का निर्णय कराता है - सद्भाव बनाता है, या अन्यथानुपपत्तिरूप से अनिश्चित होकर उसका निर्णय कराता है - सद्भाव बनाता है अर्थात् ज्ञाता के व्यापार बिना अर्थकी प्रकटता नहीं होती ऐसा निश्चित होकर वह ज्ञातृव्यापार की मान्यता कराता है अथवा यों ही ? यदि यों ही - विना अन्यथानुपपन्नत्व के निश्चय के उसकी कल्पना कराता है तो अतिप्रसंग होगा, ज्ञाता के व्यापार के साथ अर्थ प्राकट्य की अन्यथानुपपत्ति निश्चित नहीं होने पर भी जैसे वह अर्थप्राकट्य व्यापार को बताता है - उसका सद्भाव ख्यापित करता है - उसी प्रकार वह जिसके बिना उत्पन्न होता है ऐसे फालतू स्तम्भ कुभादि पदार्थ भी उस व्यापार को बतलाने वाले हो जावें, क्योंकि जैसे अर्थ प्राकट्य का ज्ञातृ व्यापार से संबंध नहीं है वैसे ही स्तम्भादिक के साथ भी व्यापार का संबंध नहीं है - सो यह बड़ा भारी दोष आवेगा, यदि ऐसा कहा जाय कि ज्ञाता के व्यापार के साथ अर्थ प्राकट्य की अन्यथानुपपत्ति निश्चित है तो हम पूछते हैं कि अर्थ प्राकट्य में अन्यथानुपपन्नत्व का निश्चय कहां पर हुआ - अर्थात् साध्य के अभाव में - ( ज्ञातृ व्यापार के अभाव में) अर्थ प्राकट्य अनुपपन्न है इस प्रकार के अन्यथानुपपन्नत्व का निश्चय आपने कहां पर किया है ? क्या दृष्टान्त में किया है या साध्यधर्मी में किया है ? यदि ज्ञाता का व्यापार और अर्थप्राकट्य इनकी अन्यथानुपपत्ति का निश्चय दृष्टान्त में किया है तो वहीं पर हेतु Jain Education International ७१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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