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________________ त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अन्य ग्रंथोंसे तुलना ( ७३ ) परिशुद्ध, गारव - त्रय-रहित व सिद्धान्तपारंगत आदि विशेषण पदोका प्रयोग करते हुए अपनी गुरुपरम्परा इस प्रकार बतलाई है - पंचाचारपरिपालक ( आचार्य ) वीरनन्दि, उनके शिष्य विख्यात बलनन्दि और उनके शिष्य ग्रन्थकर्ता पद्मनन्दि । अन्तमें ग्रन्थरचनाका स्थान वारा नगर और वहां के राजा णउत्तम ( नरोत्तम ) 'शान्ति' का निर्देश करते हुए श्रुत- कल्पतरु, धर्म-समुद्र एवं वीरजिनेन्द्रको नमस्कार करके प्रस्तुत अन्यको पूर्ण किया गया है । इस ग्रन्थ में चूंकि त्रिलोकसारकी निम्न गाथायें ज्योंकी त्यों पायी जाती हैं, अतः, यदि वे उससे भी प्राचीन किसी अन्य ग्रन्थकी नहीं हैं तो, प्रायः निश्चित है कि इसकी रचना त्रिलोकसारके पश्चात् हुई है— 'ववहरुद्धारा पल्ला तिष्णेव होंति णायव्वा । संखा दीव-समुद्दा कम्मट्ठिदि वण्णिदा जेहिं ॥ ९३ ॥ "विक्खभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिरयो होदि । विक्खंभच उन्भागे परिरयगुणिदे हवे गणियं ॥ ९६ ॥ इसुवरगं चउगुणिदं जीवावग्गम्हि पक्खिवित्ताणं । उगुणिदिणा मजिदे णियमा वट्टस्स विक्खंभो ॥ ७६१ ॥ इनके अतिरिक्त त्रिलोकसारकी ७६० और ७६४ नं. की गाथायें भी साधारण परिवर्तनके साथ जंबूदीवपणत्तिके द्वितीय उद्देशमें क्रमशः २३-२४ और २५ नं. पर पायी जाती हैं। चूंकि इसकी निम्न गाथा ' उक्तं च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ ' कह कर वर्तमान लोकविभाग के तृतीय प्रकरण में श्लोक ५२ के पश्चात् उद्धृत की गई है, अतः निश्चित है कि इसकी रचना वर्तमान लोकविभाग के पहिले हो चुकी है --- को सेक्कसमुत्तुंगा पलिदोवमआउगा समुद्दिट्ठा | आमलयपमाहारा चउत्थभत्तेण पारंति ॥ ८ बृहत्क्षेत्रसमास जिस प्रकार दिगम्बर परम्परा में त्रिलोकप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार और लोकविभाग आदि कितने ही ग्रन्थ लोकानुयोगके उपलब्ध हैं उसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परामें भी बृहत्क्षेत्रसमास, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, प्रवचनसारोद्धार, बृहत्संग्रहणी और लोकप्रकाश आदि उक्त जं. दी. ११-५४. १ जं. दी. १३-३६. ( यह गाथा सर्वार्थसिद्धि ३ - ३९ में भी उद्घृत है, अतः प्राचीन है । साथ ही इसके अध्याय ३ सूत्र ३१ में उदधृत की गई एक गाथा और भी जंबूदीवपण्णत्ति ( १३-१२ ) में पायी जाती है । यह गाथा प्रवचनसारोद्वारमें भी १३८७ नं. पर उपलब्ध होती है । २. जं. दी. ४-३४. ३ जं. द्वी. ६-७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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