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________________ (७२). त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना . पद्मा आदिक १६ विजयोंका पृथक् पृथक् वर्णन किया गया है । फिर गन्धमादन और माल्यवन्त पर्वतों एवं वेदी आदिकी प्ररूपणा करके इस उद्देशको समाप्त किया गया है। (१०) दश उद्देशमें लवण समुद्रका विस्तार बतला कर उसके मध्यमें स्थित उत्तम मध्यम एवं जघन्य पातालों, जलकी वृद्धि-हानि, कौस्तुभादि आठ पर्वतों, देवनगरियों, गौतमादिक द्वीपों, अन्तरद्वीपों एवं उनमें रहनेवाले कुमानुषोंकी प्ररूपणा की गई है। (११) ग्यारहवें उद्देशमें पहले धातकीखण्ड द्वीप, कालोद समुद्र, पुष्कर द्वीप और उसके मध्यमें स्थित मानुषोत्तर पर्वतका वर्णन करके जम्बूदीपको आदि लेकर १६ द्वीपोंके नामोंका निर्देश करते हुए लवणोद एवं कालोद समुद्रोंको छोड़ शेष समुद्रोंके नाम द्वीपसम बतलाये गये हैं । आगे जाकर लोकका आकार और विस्तार बतलाते हुए रत्नप्रभादिक सात पृथिवियों, भवनवासी व व्यन्तर देवों, ४९ नरकप्रस्ताों व उनमें स्थित नारकियोंके दुःखों एवं वहां उत्पन्न होनेके कारणों का वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् अढ़ाई द्वीपोंके आगे असंख्यात द्वीपोंमें उत्पन्न होनेवाले तिर्यंचोंकी अवस्था बतला कर ६३ इन्द्रक पटलोंका निर्देश करते हुए सौधर्म एवं ईशान इन्द्रके सुखकी प्ररूपणा की है। आगे चलकर सनत्कुमारादि कल्पों एवं कल्पातीतोंका संक्षेपमें वर्णन करके यह उद्देश समाप्त किया गया है। (१२) बारहवें उद्देशमें प्रथमतः चन्द्रोंका अवस्थान बतला कर उनकी गति और संख्या आदिकी प्ररूपणा करते हुए संक्षेपमें सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओंका भी कथन किया गया है । (१३) तेरहवें उद्देशमें प्रथमतः कालके दो भेद बतला कर पुनः समयादि रूप व्यवहार कालके भेदोंका उल्लेख करते हुए उत्सेधांगुलादि तीन अंगुलों एवं पल्यादिकोंके प्रमाणकी प्ररूपणा की गई है । पश्चात् सर्वज्ञका स्वरूप बतला कर उसके वचनकी प्रमाणता प्रगट करते हुए प्रमाणके प्रत्यक्ष-परोक्षादि रूप अनेक भेद-प्रमेदोंका वर्णन किया है । आगे चलकर श्रुतकी विशेषता दिखलाते हुए पुनः सर्वज्ञका स्वरूप बतला कर जिन भगवान्के अतिशय बतलाये गये हैं। अन्तमें कहा गया हैं कि ऋषि विजयगुरुके समीपमें जिनागमको सुनकर उनके प्रसादसे मैंने अढ़ाई द्वीपों, अधः उर्ध्व एवं तिर्यग् लोकोंमें जहां-जहां मंदर शैलादिक जो जो स्थान हैं उन सबोंका आचार्यपरम्परानुसार वर्णन किया है। आगे तप-संयमसम्पन्न एवं श्रुतसागर पारंगत माघनन्दि गुरु, उनके शिष्य सकलचन्द गुरु और प्रशिष्य श्रनिन्दि गुरुका उल्लेख • करके कहा गया है कि प्रस्तुत ग्रन्थ इन्हीं श्रीनान्द गुरुके निमित्त लिखा गया है । ___ ग्रन्थकार पद्मनन्दि मुनिने अपने लिये यहां गुणगणकलित, त्रिदंडरहित, त्रिशल्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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