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________________ त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अन्य ग्रन्थोंसे तुलना (७१) परम्परासे प्राप्त हुई द्वीप-सागरप्रज्ञप्तिके प्ररूपणकी प्रतिज्ञा करके समस्त द्वीप-समुद्रोंकी संख्याका निर्देश करते हुए जम्बूद्वीप, उसकी जगती, विजयादिक द्वार और उनके ऊपर स्थित विजयादिक देवोंकी नगरियोंकी प्ररूपणा की है। अन्तमें जम्बूद्वीपस्थ क्षेत्र, अनेक प्रकारके पर्वत और समस्त वेदियोंकी संख्या बतला कर इस उद्देशको पूर्ण किया है । (२) दूसरे उद्देशमें भरतादिक सात क्षेत्रोंके नामोंका निर्देश करके उनके विस्तारादिका कथन करते हुए करणसूत्रों द्वरा जीवा, धनुःपृष्ट, इषु, वृत्तविष्कम्भ, जीवाकरणि, धनुष्करणि, इषुकरणि, पार्श्वभुजा और चूलिका आदिके निकालने की विधि बतलायी है। फिर विजया पर्वत, उसके ऊपर स्थित कूट, जिनभवन, दक्षिण-उत्तर भरतकी जीवा आदिका प्रमाण, भरतसे ऐरावत क्षेत्रकी समानता और सुषम-सुषमादिक कालोंके वर्तनक्रमकी प्ररूपणा की गई है । (३) तृतीय उद्देशमें हिमवदादि कुल पर्वत, उनपर स्थित द्रह, कूट एवं गंगादिक नदियों का विस्तारसे वर्णन किया गया है । (४) चतुर्थ उद्देशमें मेरु पर्वत, भद्रशालादि वनचतुष्टय और जिनजन्माभिषेकयात्राकी अधिक विस्तारके साथ प्ररूपणा की गई है । (५) पांचवें उद्देशमें मन्दरपर्वतस्थ त्रिभुवनतिलक नामक जिनभवनकी रचना आदिका बहुत विस्तारपूर्वक वर्णन करके नन्दीश्वरद्वीपादिकमें स्थित अन्य जिनभवनों के प्रमाणादिकका भी निर्देश किया गया है । (६) छठे उद्देशमें उत्तरकुरुकी स्थिति व विस्तागदि बताकर यमकगिरि , द्रहपंचक, द्रहोंमें स्थित कमल, कंचन शैल, सीतानदी, जम्बूवृक्ष, देवकुरु, वक्षारगिरि आदि, शाल्मलीवृक्ष और देव-उत्तरकुरुआमें उत्पन्न हुए मनुष्यों के उत्सेध आदिकी प्ररूपणा की गई है। (७) सातवें उद्देशमें विदेह क्षेत्रकी स्थिति व विस्तारादि बताकर देवारण्य, ८ वेदिकायें, १२ विभंग नदियां, १६ वक्षार पर्वत, ३२ विजय व ६४ नदियां, इनका विस्तारादि बतलाया गया है । पश्चात् कच्छा विजयका वर्णन करते हुए कर्वट एवं मटंबादिकोंका खरूप बतला कर तीर्थकरादिकोंका अवस्थान, विजया पर्वत, मागध वरतनु व प्रभास द्वीप तथा चक्रवर्तीके दिग्विजयकी प्ररूपणा की गई है। (८) आठवें उद्देशमें कच्छा विजयके समान ही सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लांगलावर्ता, पुष्कला, पुष्कलावती, वत्सा, सुक्त्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, सुरम्या, रमणीया और मंगलावती, इन पन्द्रह विजयोंकी पृथक् पृथक् प्ररूपणा की गई है। (९) नौवें उद्देशमें सौमनस और विद्युत्प्रभ पर्वतोंका विस्तारादि बसला कर अपरविदेहस्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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