SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७०) त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना सुरधर [ घर } कंठा भरणा वणसंड-विचित्तवत्थ कयसोहा । गोउस्-तिरीडमाला पायार-सुगंधदामड्ढा ॥ तोरण-कंकणहत्था वज्जपणाली-कु [फु] रंत के ऊरा । जिणभत्रण-तिलयभूदा भूहर-राया विरायति ॥ जं. दी. ३, ३३.३६. (ग) तिलोयपण्णात्तिके पांचवें महाधिकारमें नन्दीश्वर द्वीपके वर्णनमें बतलाया है कि चारों प्रकारके देव प्रति वर्ष अष्टाह्निक पर्वमें वहां जाकर गाढ़ भक्तिसे जिनपूजन करते हैं । उस समय वहां सौधर्मादिक इन्द्रोंके जानेका वर्णन जैसा तिलोयपण्णत्तिमें किया गया है ( देखिये ति. प. ५, ८४-९७), ठीक उसी प्रकार जंबूदीवरणत्तिके पांचवें उद्देशमें भी मेरुपर्वतस्थ जिन भवनों में जिनपूजनके निमित्त प्रस्थान करनेवाले उक्त इन्द्रों की यात्राका वर्णन किया गया है (देखिये जं. दी. ५, ९३-१०८)। विशेष इतना है कि उस समय नन्दीश्वर दीपको जाते हुए इन्द्रों के हाथमें जहां तिलोयपण्णत्तिमें श्रीफल आदि पूजाद्रव्यका होना बतलाया है, वहां जंबूदीवपण्णत्तिमें उनके हाथमें वज्र व त्रिशूल आदिके रहने का उल्लेख है । (घ ) नर्तकानीक द्वारा किया जानेवाला तीर्थंकररादिके चरित्रका अभिनय (ति. प. ८ ३६०-३६७; जं. दी. ४, २१३-२१९)। इसके अतिरिक्त दोनों प्रन्योंकी समानताके लिये निम्न गाथाओं की और भी तुलना की जा सकती है| जं. दी. | १-३६ | २-६५ | २-६८ | २, १९७-९८ | ४.४५ | ४-५६ | ६-१२ | ६-७९ | | ति. प. |४-१६४८/४-१६४१/४-१६५६ ४, १५३९-४० ४-१९६५४-१६९३/७-२०२०/ ४-२१९० | जं. दी. | ७,५७-६० / ७, ६१-६४ । ७-६९ | ७-११० | ७, ११११४ | ११-१९ । ति. प ४, २४४८-५१/४, २२८२-८५ १४-२२८७ | ४-२२८९ | ४, २२७८-८०४-२५८२ जं. दी. | ११.१०८ | ११-२८५ | ति. प. | १.१६५ | ८-३९१ । जंबूदीवपण्णत्ति के विषयका परिचय उद्देशकमसे इस प्रकार है (१) प्रथम उद्देशमें पहले पंच गुरुओंको नमस्कार करके महावीर भगवान् के निर्वाणके पश्चात् रहनेवाली केवली व श्रुतकेवली आदिकी परम्परा बतलायी गई है। तत्पश्चात् उक्त . , यहां लांतवेन्द्रकी यात्रासूचक गाथा प्रतियों में छूट गई प्रतीत होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy