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त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अन्य ग्रंथोंसे तुलना
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गई है' उसी प्रकार इसके प्रारम्भमें भी प्रथमतः पांच गाथाओंके द्वारा पांचों परमेष्ठियोंकी वन्दना करके पश्चात् छठी गाथाके द्वारा 'दीव सायरपण्णत्ति ' के कहनेकी प्रतिज्ञा की गई है' । भेद केवल इतना हुआ है कि तिलोयपण्णत्तिमें पहले सिद्धों को नमस्कार करके फिर अरहन्तोको नमस्कार किया है । किन्तु इसमें पहले अरइन्त और फिर सिद्धों को नमस्कार किया गया है ।
(२) तिलोयपण्णत्ति के समान ही इसमें भी प्रत्येक अधिकार ( प्रथम अधिकारको छोड़) के प्रारम्भ व अन्तमें क्रमशः ऋषमादि चाबीस तीर्थंकरोंको नमस्कार किया गया है ।
(३) विषयवर्णन पद्धति तो दोनों प्रन्थोंकी समान है ही, साथ ही इसमें तिलोयपणत्तिकी बीसों गाथायें यत्किचित् परिवर्तनके साथ प्रायः ज्योकी त्यों पायी जाती हैं। जैसे - ( क ) भरतादिक सात क्षेत्रोंको नरेन्द्रकी उपमा देकर दोनों ग्रन्थोंमें उनका इस प्रकार वर्णन किया गया है—
ऋष्पतरु-धवलछत्ता वरउववण चामरेहि चारुधरा । वरकुंड· कुंड लेहिं विचित्तरूहिं रमणिज्जा | वरवेदी - कडित्ता बहुरयणुज्जलगगिद-मउडधरा । सरिजलापवाह - द्वारा खेत्त - णरिंदा विराजंति ॥ ति. प. ४, ९२-९३. कष्पतरु-धवळछत्त। उववण-ससिधवलचामराडोवा । बहुकुंड-रयणकंठा वण-कुंडलमंडियागंडा || as - कडसुतसोहा णाणापव्वय- फुरंतवरमउड । । चर [ वर ] णइजलंतहोए [जलच्छहारा] खेत्त गरिंदा विरायंति ॥ जं. दी. २, ३-४.
(ख) हिमवदादिक छह कुलपर्वतों का वर्णन
वरदह - सिदादवत्ता सरि-चामरविज्जमानया परिदो । कप्पतरु चारुचिधा वसुमइ.सिंहासनारूढा ॥ ववेदी - कडत्ता विविज्जलरयणकूड-मउडधरा । अंबरणिज्झर - हारा चंचलतरु- कुंडला मरणा ॥ गोउर-तिरीडरम्मा पायार-सुगंधकुसुमदामग्गा । सुरपुर- कंठाभरणा वणराजि-विचित्तवत्थकयसोहा ॥ तोरण - कंकण जुत्ता वज्जपणाली - फुरंतकेयूरा । जिणवर मंदिर- तिलया भूधरराया विराजंति ॥
ति. प. ४, ९६-९९ वरदह - सिदादपत्ता सरि-चामरविज्जुमाण बहुमाणा । कप्पतरु - चारुचिण्डा वसुमइ-सिंहासनारूढा || वेदि-कडिसुतणिवा मणिकूट किरं दिव्ववरम उडा | णिज्झरपलंबणाहा [हारा] तरु-कुंडलमंडियागंडा ॥
१ एवं वरपंचगुरू तिरयणसुद्वेण णर्मसिऊणाहं । भध्वजणाण पदीव वोध्छामि तिलोयपण्णचिं । ति प १ ६. २ दे [ते] वंदिऊण सिरसा वोच्छामि जहाकमेण जिणदिट्ठे । आयरियपरंपरया पण्णांचं दीव जलधीणं ॥
जं. दी. १-६.
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