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( ६८ )
मगरके खुले हुए अधरके आकार निर्दिष्ट किया है ।
यहाँ त्रिलोकसार गा. ८४२ - ८४६ में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, अर्धचक्री और रुद्रोंका उत्पत्तिकाल बतलाने के लिये जिस संदृष्टिका उपयोग किया है वह तिलोयपण्णत्त ( ४, १२८७–९१, १४१७, १४४३ ) में भी इसी क्रमसे पृथक् पृथक् पायी जाती है । इसके अतिरिक्त वह हरिवंशपुराण (६०, ३२४- ३२९ ) और प्रवचनसारोद्वार (४०६ - (४०९) में भी इसी क्रमसे उपलब्ध होती है ।
त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना
किन्तु जब हम त्रिलोकसारकी गाथा ८५० का तिलोयपण्यत्तिकी गाथा ४, १५०७ आदिसे मिलान करते हैं तो हमें कल्किके सम्बन्ध में दोनों ग्रन्थोंमें बड़ा मतभेद दिखाई देता है | त्रिलोकसार के अनुसार महावीरनिर्वाणसे एक हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर कल्किका जन्म हुवा और उसने चालीस वर्ष राज्य किया, जब कि तिलोयपण्णत्तिके अनुसार महावीरनिर्वाणसे एक हजार वर्षके भीतर ही कल्किका आयुकाल आ जाता है और उसका राज्यकाल ब्यालीस वर्ष बतलाया गया है ।
अन्य अधिकारों के समान इस अधिकारकी भी कितनी ही गाथायें परिवर्तन के साथ तिलोयपण्णत्ति में देखी जाती हैं । उदाहरणार्थ निम्न किया जा सकता है -
त्रि. सा. ३१० ५७० ५९० ५९४-५ ६८७-९० ९२० ९८८ ९८९ १००९ १०१४ २५६१ १६६७ | ४-२३० ४,२३८-९२२०६-९ २४८९ १६३९ ३-४९ ३-४७ ३-४५
ति. प.
ज्योंकी त्यों या कुछ
गाथाओंका मिलान
७ जंबूदीवपत्ति
यह पद्मनन्दिमुनि विरचित एक लोकानुयोग ( करणानुयोग ) का ग्रन्थ है । इसमें निम्न तेरह उद्देश हैं - १ उपोदघात, २ भरत - ऐरावत वर्ष, ३ शैल- नदी - भोगभूमि, ४ सुदर्शन (मेरु ), ५ मन्दरजिनभवन, ६ देवोत्तरकुरु, ७ कक्षाविजय, ८ पूर्व विदेह, ९ अपर विदेह, १० लवणसमुद्र, ११ द्वीप सागर, अधः - ऊर्ध्व- सिद्धलोक, १२ ज्योर्तिलोक, और १३ प्रमाणपरिच्छेद । इनकी गाथासंख्या इस प्रकार है - ७४ + २१० + २४५ + २५२ + १२५ + १७८ + १५३ + १९८ + १९७ + १०२ + ३६५ + ११४ + १७६ = २३८९ । इसकी रचना शैली पूर्णतया तिलोयपण्णत्तिके समान है । यथा
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( १ ) जिस प्रकार तिलोयपण्णत्तिके प्रारम्भमें प्रथम पांच गाथाओं के द्वारा पांचों परमेष्ठियोंका स्मरण करके पश्चात् छठी गाथाके द्वारा तिलोयपण्णत्तिके कहनेकी प्रतिज्ञा की
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