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त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अन्य ग्रंथोंसे तुलना
(६७)
यहाँ हिमवान् पर्वतके ऊपरसे जिस जिह्निका नालीके द्वारा गंगा नीचे गिरी है उसका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है
केसरिमुह-सुदि-जिन्भा-दिट्ठी भू- सीसप हुदिगोसरिसा |
तेहि प्रणालिया सा वसहायारे त्तिणिद्दिट्ठा ।। त्रि. सा. ५८५.
अर्थात् वह नाली मुख, कान, जिह्वा और नेत्र इनसे सिंहके आकार तथा भ्र और शिर आदि से गाय के सदश है, अत एव वह वृषभाकार कही गई है ।
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इस प्रकार उस नालीका यह स्वरूप कुछ अटपटासा हो गया है, क्योंकि, उसका आकार न तो सिंहके समान ही रह सका है और न गायके ही समान । हम जब तिलोयपण्णत्ति में इस प्रकरणको देखते हैं तो वहां हमें यह गाथा उपलब्ध होती है
सिंग- मुह-कण्ण-जिंहा-लोयण- भूआदिएहि गोसरिसो ।
वसोत्ति तेण भण्णइ रयणा मरजीहिया तत्थ ॥ ति. प. ४-२१५.
इसमें उक्त नालीका स्वरूप पूर्ण रूपेण गायके आकार ही बतलाया गया है । यह गाथा सम्भवत: त्रिलोकसारकर्ता के सामने रही है । परन्तु उसका ' सिंग ' पद अपने रूपमें न रहकर सिंघ या सिंह पदके रूपमें भ्रष्ट होकर रहा है । इसीके द्वारा भ्रान्ति हो जानेसे उन्होंने 'सिंह' के पर्यायवाची 'केसरी' शब्दका प्रयोग उपर्युक्त गाथामें कर दिया है ।
इस विषयको तत्त्वार्थराजवार्तिक में देखने पर वहां गंगाकुण्डादिका निर्देश तो मिलता है, परन्तु उक्त नालीका निर्देश वहां किसी प्रकार भी देखने में नहीं आता । (देखिये त. रा. अध्याय ३ सूत्र २२ )
हरिवंशपुराण' और वर्तमान लोकविभाग में उसे वृषभाकार ही बतलाया है, न कि कुछ अवयव सिंहाकार भी । जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में उसे स्पष्टतया सींग एवं मुखादिक सब अवयव द्वारा वृषभाकार ही कहा है । जिन भद्रगणि-क्षमाश्रमण-विरचित बृहत् क्षेत्रसमास में उसे
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१ षड्योजन सगव्यतां विस्तीर्णा वृषभाकृतिः । जिह्निका योजना तु बाहुल्यायामतो गिरौ ॥
तयैत्य पतिता गंगा गोशृंगाकारधारिणी । श्रीगृहाग्रेऽभवद भूमौ दशयोजनविस्तृता ॥ है. पु. ५, १४०-४१. २ सशषट् च विस्तीर्णा बहला चार्धयोजनम् । जिह्विका वृषभाकारास्त्यायता चार्धयोजनम् ॥ जिह्विकायां गता गंगा पतन्ती श्रीगृहे शुभे । गोश्रृंगसंस्थिता भूत्वा पतिता दशविस्तृता ॥ लो.वि. १,९२-९३. ३ सिंग-मुह-कण्ण-जीहा-णयणा-भू आदिएहि गोसरिसा । वसह त्ति तेण णामा णाणामणि- रयणपरिणामा ॥ जं. प. ३-१५१.
४ निवss गिरिसिहराओ गंगा कुंडम्मि जिम्भियाए । मयरवियद्वाहरसंठियाए वइरामयतलम्मि || बु. क्षे. १,२१६.
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