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(४०)
त्रिलोकप्रज्ञप्तिको प्रस्तावना और नोकर्ममें 'अहम्' ऐसी, तथा 'मै हूं सो ही कर्म-नोकर्म है। इस प्रकार की यह बुद्धि 'जा जाव' अर्थात् जब तक बनी रहती है ' ताव' अर्थात् तब तक यह जीव अप्रतिबुद्ध अर्थात् स्वानुभवसे शून्य बहिरात्मा ही बना रहता है।
उसके इस रूपको देखते हुए इसमें कोई सन्देह नहीं रहता कि उपर्युक्त गाथा उक्त परिवर्तन के साथ तिलोयपण्णात्तिमें समयसारसे ही ली गई है।
(४) इसके आगे तिलोयपत्तिमें एक दूसरी गाथा इस प्रकार है
परमबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छति ।
संसारगमणहेदुं विमोक्खहे, अयाणता ॥ ५३ ॥ __ यह गाथा समयसार ( ३-१० ) में ज्योंकी त्यों पायी जाती है । इसके पूर्व में वहाँ निम्न तीन माथायें हैं जो विशेष ध्यान देने योग्य हैं
परमट्ठो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी णाणी । तम्हि द्विदा सहावे मुणिणो पावति णिव्वाणं ॥ ७॥ परमम्मि य अठिदों जो कुणदि तवं वदं च धारयदि । तं सव्वं बालतवं बालवदं विति सबण्हू ॥ ८ ॥ वद-णियमाणि धरता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता ।
परमट्ठ वाहिरा जेण तेण ते होति अगाणी ॥ ९ ॥
यहां प्रथम गाथामें बन्धका अकारण और मोक्षका कारण होनेसे ज्ञानको परमार्थ या आत्मा कह कर उसके ही नामान्तर समय, शुद्ध, केवली, मुनि व ज्ञानी बतलाये हैं और इसके साथ ही यह भी बतला दिया है कि जो मुनि उस स्वभावमें स्थित हैं वे निर्वाणको प्राप्त करते हैं।
___आगेकी दूसरी गाथामें यह बतलाया है कि इस ज्ञानस्वरूप परमार्थमें स्थित न होकर जो तप व व्रतको धारण करता है उसका वह सब तप व व्रत बालतप एवं बालवत ही है, वास्तविक नहीं हैं । ऐसा बता कर तप एवं व्रतको परमार्थभूत ज्ञानसे रहित होनेके कारण मोक्षका अहेतु सूचित कर दिया है। • तीसरी गाथामें व्रत-नियमोंको धारण करनेवाले तपस्वियोंको परमार्थबाह्य होनेसे अज्ञानी बतलाया गया है ।
इनसे आगे प्रकृत गाथामें अज्ञानतासे केवल अशुभ कर्मको बन्धका कारण मान उक्त व्रत-नियम-शीलादि रूप पुण्य कर्मको भी बन्धका कारण न जानकर उसे मोक्षका हेतु मननेवाले उन्ही परमार्थबाद्योंको पुण्यका इच्छुक बतलाया है और इस प्रकारसे उनकी संसारहेतु विषयक अज्ञानता प्रगट की गई है ।
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