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त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अन्य ग्रंथोंसे तुलना
(११) इस पूर्वापर प्रकरणको देखकर अब पाठक स्वयं निर्णय करें कि उक्त गाथा समयसारकी होनी चाहिये या तिलोयपण्णत्तिकी। (५) एक और भी नमूना लीजिये
पडिकमणं पडिसरणं पडिहरणं धारणा णियत्ती य ।
णिंदण-गरहण-सोही लब्भंति णियादभावणए ॥ ति प. ९-१९.
यह गाथा समयसार (८-१९) में भी पायी जाती है । वहां उसका उत्तरार्ध इस प्रकार है - जिंदा गरुहा सोहि य अहविहो होदि विसकुंभो ।
इसके आगे वहां निम्न गाथा और भी है
अपडिक्कमणं अपडिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव । , अणियत्ती य अणिंदा आरुहा दिसोहि य अमयकुंभो ॥ २०॥
यहां इन दो गाथाओंके द्वारा प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहरण, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्दा और विशुद्धि, इन आठको विषकुम्भ तथा इनसे विपरीत अतिक्रमणादि रूप आठको अमृतकुम्भ बतलाया है । अभिप्राय यह कि प्रतिक्रमणादि व अप्रतिक्रमणादि रूप उभय अवस्थाओंसे रहित होकर तृतीय अवस्था (शुद्धोपयोग ) पर लक्ष्य रखनेवाले के लिये निरपराध होनेसे वे प्रतिक्रमणादिक अकिंचिकर ही हैं, अतः हेय हैं । परन्तु जो इस तृतीय भूमिको न देखकर केवल व्यवहार नयका आश्रय कर प्रतिक्रमणादिकको ही मोक्षहेतु मानता है उसके लिये वे विषकुम्भके ही समान हैं । वे (प्रतिक्रमणादिक ) शुद्धोपयोग रूप तृतीय भूमिकाकी प्राप्तिमें कारण होनेसे केवळ व्यवहार नयकी अपेक्षा उपादेय हैं, निश्चयसे नहीं।
अब देखिये कि उक्त दो गाथाओंमें से तिलोयपण्णत्तिमें केवल प्रथम गाथा ही कुछ पाठपरिवर्तनके साथ उपलब्ध होती है । इस पाठपरिवर्तनसे उसकी यथार्थता नष्ट हो गई है, क्योंकि, उक्त पाठभेद (लभंति णियादभावणए) के कारण उन्हें (प्रतिक्रमणादिकोंको) निजात्मभावनाके द्वारा प्राप्तव्य या उपादेय मानना पड़ता है, जो प्रकृत (सिद्धत्वभाव ) में विरुद्ध पड़ता है। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह गाथा समयसारसे ही यहां ली गई है।
__ इनके अतिरिक्त २३, २४, २५, १२ और ६२-६४ गाथायें भी समयसारमें जैसीकी तैसी या कुछ परिवर्तनके साथ पायी जाती हैं ( देखिये समयसार १, गा.१०, ३८, ३६, ११, ८-६, २.१, और २-८.)।
इसी प्रकार प्रवचनसारकी भी बीसों गाथायें तिलोयपण्णत्तिों जैसीकी तैसी या कुछ
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