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________________ त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अन्य ग्रंथोंसे तुलना (३९) इस गाथाको वहांसे अलग कर दिया जावे तो पूर्व गाथामें कहे गये उन स्कन्धादिकोंका लक्षण न बतलानेसे प्रकरण अधूरासा ही रह जाता है। परन्तु तिलोयपण्णत्तिमें उसकी ऐसी स्थिति नहीं है। वहां यदि यह गाथा न भी रहती तो भी पाठक प्रकरणकी असंगतिका अनुभव कदापि नहीं कर सकते थे। .. (२) इसके आगे तिलोयपण्णत्तिों आयी हुई. गाथा ९७ और १०१ भी पंचास्तिकायमें क्रमशः ८१ और ७८ नं. पर पायी जाती है। वहाँ तिलोयपण्णत्तिमें आयी दुई गा. १०१ के ' आदेसमुत्तमुत्तो' के स्थानमें 'आदेसमत्तमुत्तो', 'जादो' के स्थानमें 'जो दु' और 'य खंदस्स' के स्थानमें 'सयमसद्दो' पाठभेद पाया जाता है जो सुव्यवस्थित है । यदि वहां 'आदेसमुत्तमुत्तो' पाठ लेते हैं तो उसका सुसंगत अर्थ नहीं बैठता । किन्तु 'आदेसमत्तमुत्तो' के होनेपर उसका इस प्रकार सुसंगत अर्थ हो जाता है- जो आदेश मात्र अर्थात् केवल संज्ञादिकके भेदसे ही मूर्तिक है, किन्तु वस्तुतः एकप्रदेशी होनेसे अमूर्तिक ही है। कर्तृपदके रूपमें तथा 'सो' पदका सापेक्ष होनेसे 'जो दु' में 'जो' पदका प्रयोग उचित है । 'जादो' पाठ असम्बद्ध है। इसी प्रकार चतुर्थ चरणके अन्तमें 'खंदस्स' पद भी असम्बद्ध व अनर्थक है। किन्तु 'सयमसहो' पाठ 'शब्दका कारण होने पर भी स्वयं शब्दपर्यायसे रहित है' अर्थका बोधक होनेसे अधिक उपयोगी है । पंचास्तिकायमें इसके आगे आयी हुई ' सदो खंधप्पभवो' आदि गाथा इस अर्थको और भी पुष्ट कर देती है । (३) ति. प. के नौवें अधिकारमें निम्न गाथा है कम्मे णोकम्मम्मि य अहमिदि अहयं च कम्म-णोकम्मं । जायादि सा खल बुद्धी सो हिंडइ गरुवसंसारे ॥ ४३ ॥ इसके उत्तरार्धमें प्रयुक्त 'सा' और 'सो' सर्वनाम पद 'जा' और 'जो' सर्वनाम पोकी अपेक्षा रखते हैं । परन्तु यहां उन दोनों ही पदोंका अभाव है । अत एव बिना खींचातानीके उसका अर्थ ठीक नहीं बैठता। अब जरा इसी गाथाका असली रूप समयसारमें देखिये। वहां वह इस प्रकार है __ कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्मणोकम्मं । जा एसः खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ॥ स. सा. १-१९. अब इस रूपमें उसका अर्थ बड़ी सरलतासे इस प्रकार किया जा सकता है- कर्म एयरस-वण्ण-गधं दो फासं सद्दकारणमसई । खधंतरिदं दवं परमाणुं तं वियाणेहि ।। ८१ ॥ आदेसमत्तमुत्तो धादुचदुक्कस्स कारणं जो दु । सो णेओ परमाणू परिणामगुणो सयमसद्दो।। ७८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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