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(३६)
त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना दिशाके श्रेणिबद्ध और नैऋत्य व आग्नेय विदिशाओंके प्रकीर्णक; इन सबको आनत-आरण कल्प तथा उनके उत्तरके श्रेणिबद्ध और वायव्य एवं ईशान विदिशाओंके प्रकीर्णक, इनको प्राणत-अच्युत करप बतलाया है। यहां आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पोंका स्वरूप पृषक् पृथक् नहीं बतलाया जा सका है । इन बारह कल्पोंमें गणित प्रक्रियाके अनुसार उन्होंने अणिबद्ध विमानोंकी संख्या निर्धारित की है ! तत्पश्चात् उनमें प्रकीर्णक विमानोंकी भी संख्याका निर्देश करके उन्होंने सोलह कल्पोंके मतानुसार भी उक्त विमानोंकी संख्या समुदित (, १७८-१८५) रूपमें बतला दी है । सोलह कल्पोंके मतानुसार उन कल्पोंकी सीमा निर्धारित करके ( ८-१९८) भी उनमें पृथक् पृथक् इन्द्र (सोलह ) क्यों नहीं स्वीकार किये गये, यह विचारणीय है।
इसके आगे इन्द्रविभूतिप्ररूपणामें इन्द्रोंके सामानिक-त्रायस्त्रिंश आदि रूप देवपरिवार, उनकी देवियों का प्रमाण एवं प्रासादादिकका वर्णन है । पटलक्रमसे सभी देवदेवियोंकी आयुका भी विस्तारसे कयन किया गया है । - तत्पश्चात् इन्द्रादिकोंके जन्म-मरणके अन्तरको बतला कर गा. ५४९.५० में उक्त अन्तरको प्रकारान्तरसे फिर भी बतलाया गया है। गापा ५४९ त्रिलोकसार (५२९) में ओंकी त्यों पायी जाती है । आगे गा. ५५१ से ५५४ में आयुके अनुसार आहारकालकी प्ररूपणा की है। गा. ५५५ में सौधर्म इन्द्र के सोम और यम लोकपालों के थाहारकालका प्रमाण २५ दिन बतलाया है, परन्तु वरुण और कुबेर लोकपालोंके आहारकालका उल्लेख यहां कुछ भी नहीं है । इसके आगे गा. ३ में की गई प्रतिज्ञाके अनुसार उच्छ्वासकाल और उत्सेधकी भी प्ररूपणा पायी जानी चाहिये थी, परन्तु वह भी यहां उपलब्ध नहीं होती । अतः सम्भव है कि यहां प्रतियोंमें कुछ पाठ छूट गया है । यह उत्सेधप्ररूपणा मूलाचारके पर्याप्ति अधिकारमें ( गा. २३ से २७) तथा सर्वार्थसिद्धि आदि अन्य ग्रन्थों में भी यथास्थान पायी जाती है।
- इसके साथ ही एक-दो गाथायें आयुबन्धप्ररूपणाकी भी छूट गई प्रतीत होती हैं, क्योंकि, यहां भोगभूमिजोंकी उत्पत्तिका क्रम उपलब्ध नहीं होता, जब कि उनका उत्पाद केवल देवगतिमें ही सम्भव है। कौन कौनसे जीव आकर देवगतिमें कहां कहां जन्म लेते हैं, इसके लिये निम्न प्रकार यंत्र दिया जाता है । इसमें प्रस्तुत ग्रन्थके अतिरिक्त मूलाचार, तत्वार्थराजवार्तिक, हरिवंशपुराण और त्रिलोकसार प्रन्थोंका भी आश्रय लिया गया है ।
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