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________________ प्रथका विषयपरिचयं (१५) सभ्यवहण के कारण, आगमन, अवधिज्ञान, देवोंकी संख्या, शक्ति और योनि, इन इक्कीस अन्तराधिकारोंके द्वारा वैमानिक देवोंकी विस्तार से प्ररूपणा की है । यहां विमानोंके रचनाक्रममें समस्त इन्द्रक विमानोंकी संख्या नामनिर्देशपूर्वक ६३ बतलायी है । सभी इन्द्रक विमानोंके चारों ओर पूर्वादिक दिशाओंमें श्रेणिबद्ध विमान और विदिशाओं में प्रकीर्णक विमान स्थित हैं । उनमें से प्रथम ऋतु इन्द्रकके चारों ओर प्रत्येक दिशामें बासठ श्रेणिबद्ध विमान हैं । इसके आगे उत्तरोत्तर १-१ श्रेणिबद्ध विमान कम (६१, ६० इत्यादि ) होता गया है । यहाँ गाथा ८४ के अनुसार ऋतु इन्द्रकके चारों ओर ६३-६३ श्रेणिबद्ध विमान भी बतलाये गये हैं । वहां आगे यह भी बतला दिया गया है कि जिनके मतानुसार ६३ श्रेणिबद्ध कहे गये हैं वे सर्वार्थसिद्धि इन्द्रककी चारों दिशाओं में भी एक एक श्रेणिवद्ध विमान स्वीकार करते हैं । यह गाथा ८५ में ' बासट्ठी ' पद. अशुद्ध प्रतीत होता है, उसके स्थानमें 'तेसट्ठी ' पद होना चाहिये | । उक्त दोनों मतों में पूर्व मतका आश्रय करके ही प्रस्तुत ग्रन्थ में इन्द्रक, श्रेणिबद्ध और प्रकीर्णकविमानोंकी सर्वत्र संख्या निर्दिष्ट की है गा. १२५ में सर्वार्थसिद्धि इन्द्रककी पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशाओं में जो क्रमशः विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामक चार विमान बतलाये हैं वे श्रेणिबद्ध ही कहे जायेंगे । यह कथनं द्वितीय मतके आधारसे ही सम्भव है, क्योंकि, प्रथम मतके अनुसार वहां श्रेणिबद्धों की सम्भावना नहीं है । आगेगा. १२६ में उन विजयादिक विमानोंके दिशाक्रममें एक अन्य मतका भी उल्लेख किया गया है । हरिवंशपुराण और वर्तमान लोकविभाग में द्वितीय मतको स्वीकार करके सर्वत्र श्रेणिबद्ध विमानोंकी संख्या निर्दिष्ट इसी प्रकार तिलोयणत्तिकार के सामने बारह और सोलह कल्पों विषयक भी पर्याप्त मतभेद रहा है। उन्होंने प्रथमतः बारह कल्पों का स्वरूप बतलाते हुए यह कहा है कि ऋतु आदि इकतीस इन्द्रक; इनके पूर्व, पश्चिम व दक्षिण इन तीन दिशाओं में स्थित श्रेणिबद्ध विमान; तथा नैऋत्य एवं आग्नेय विदिशाओंके प्रकीर्णक विमान; ये सब सौधर्म कल्पके अन्तर्गत हैं । उक्त इन्द्रक विमानोंकी उत्तर दिशा के श्रेणिबद्ध तथा वायव्य व ईशान विदिशाओं में स्थित प्रकीर्णक, इन सबको ईशान कल्प कहा गया है। इसी दिशाक्रम से सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पोंका भी स्वरूप बतलाया गया है । अरिष्टादिक चारों इन्द्रक, उनके समस्त श्रेणिबद्ध और सभी प्रकीर्णक विमान, इनको ब्रह्म कल्प कहा गया है । यही क्रम लान्तव, महाशुक्र और सहस्रार कल्पों में है । आगे आनतादिक छह इन्द्रक; उनके पूर्व, पश्चिम एवं दक्षिण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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