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ग्रंथका विषयपरिचय विस्तारवाला जम्बूद्वीप नामक 'प्रथम द्वीप है। उसके चारों ओर दो लाख यो. विस्तारसे संयुक्त लवण समुद्र है । उसके आगे दूसरा द्वीप और फिर दूसरा समुद्र है। यही क्रम अन्त तक है । इन द्वीप-समुद्रोंका वेस्तार उत्तरोत्तर पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा दूना दूना होता गया है। यहां ग्रन्थकारने आदि व अन्तके सोलह सोलह द्वीप-समुद्रोंके नामोंका भी निर्देश किया है । इनमें आदिके अढाई द्वीप और दो समुद्रोंकी प्ररूपणा विस्तारपूर्वक चतुर्थ महाधिकारनें की जा चुकी है।
यहां आठवें, ग्यारहवें और तेरहवें द्वीपका कुछ विशेष वर्णन किया गया है । शेष द्वीपोमें कोई विशेषता न होनेसे उनका वर्णन नहीं किया। आठवें नन्दीश्वर द्वीपके वर्णनमें बतलाया है कि उसका विस्तार १६३८४००००० योजन है। इसके मध्यमें चारों दिशाओंमें एक एक अंजनगिरि नामक पर्वत है जिसके चारों ओर पूर्वादिक दिशाओंमें एक एक लाख योजन विस्तारसे संयुक्त समचतुष्कोण चार चार वापिकायें हैं। इनके मध्यमें एक एक दधिमुख पर्वत और ऊपर बाह्य दोनों कोनों में एक एक रतिकर गिरि है। इस प्रकार हर एक दिशामें जो एक एक अंजनगिरि , चार चार दधिमुख और आठ आठ रतिकर पर्वत हैं उन सबके शिखरोंपर एक एक रत्नमय जिन भवन है। ये सब चारों दिशाओंमें बावन हैं । प्रतिवर्ष आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन मासमें भवनवासी आदि चारों प्रकारके देव यहां आकर शुक्ल पक्षकी अष्टमीसे पूर्णिमा तक उन जिनभवनोंमें भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं । इनमें से . कल्पवासी देव पूर्व दिशामें, भवनवासी दक्षिणमें, व्यन्तर पश्चिममें और ज्योतिषी देव उत्तर दिशामें पूर्वाह्न, अपराल, पूर्व रात्रि व पश्चिम रात्रिमें दो दो प्रहर तक अभिषेकपूर्वक जल-चन्दनादिक आठ द्रव्योंसे पूजन करते व स्तुति करते हैं।
इस पूजामहोत्सवके निमित्त जो कल्पवासी ११ देवेन्द्र अपने अपने वाहनोंपर आरूढ़ होकर हाथमें कुछ फल -पुष्पादिको लिये हुए वहाँ जाते हैं उनके नाम यहां (५, ८४-९७ ) इस प्रकार बताये गये . हैं - सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मेन्द्र, ब्रह्मोत्तरेन्द्र, शुक्रेन्द्र, महाशुक्रेन्द्र, शतारेन्द्र, सहस्रारेन्द्र आनतेन्द्र, प्राणतेन्द्र, आरणेन्द्र और अच्युतेन्द्र ।।
आगे चलकर कुण्डलवर और रुचकवर, इन दो द्वीपोंका कुछ थोड़ासा वर्णन करके यह बतलाया है कि जम्बूद्वीपसे आगे संख्यात द्वीप-समुद्रोंके पश्चात् एक दूसरा भी जम्बूद्वीप है। इसमें जो विजयादिक देवोंकी नगरियां स्थित हैं उनका वहां विशेष वर्णन किया गया है ।
तत्पश्चात् अन्तिम स्वयम्भूरमण द्वीप . और उसके बीचोंबीच बलयाकारसे स्थित स्वयम्प्रभ पर्वतका निर्देश कर यह प्रगट किया है कि लवणोद, कालोद और स्वयम्भूरमण
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