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तिलोयपण्णत्ती
[९.७३
एस सुरासुरमसिंदबदिदं धोदघाइकम्ममलं । पणमामि वढमाणं तित्थंधम्मस्स कत्तारं ॥ ७॥
जयउ जिणवरिंदो कम्मबंधा भबद्धो', जयउ जयउ सिद्धो सिद्धिमग्गासमग्गो' ।
जयउ जयअणंदो सूरिसत्थो पसत्थो, जयड जयदि वण्णीण उग्गसंघो यबिग्यो। ०४ पणमह चउवीसजिणे तित्थयरे तत्थ भरहखेत्तम्मि । भन्वाण' भवदुक्खं छिंदते णाणपरसूहि ॥ ७५ पणमह जिणवरंवसहं गणहरवसहं तहेव गुणवसहं । दट्टण परिसवसहं जदिवसहं धम्मसुत्तपाढए वसह ॥ चुण्णिस्सरूवछक्करणसरूवपमाण होइ कि जंत (?) । भट्ठसहस्सपमाणं तिलोयपण्णतिणामाए ॥ ७७ एवमाइरियपरंपरागयतिलोयपण्णत्तीए सिद्धलोयसरूवणिरूवणपण्णत्ती णाम
णवमो महाधियारो समत्तो० ॥९॥
मग्गप्पभावणटुं पवयणभत्तिप्पबोधिदेण मया। भणिदं गंथप्पवरं सोहंतु बहुस्सुदाइरिया ॥
॥ तिलोयपण्णत्ती सम्मत्ता ॥
जो इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्तियोंसे वंदित, घातिकर्मरूपी मलसे रहित और धर्म-तीर्थके कर्ता हैं उन वर्धमान तीर्थंकरको नमस्कार करता हूं ॥ ७३ ॥
कर्मबन्धसे मुक्त जिनेन्द्र देव जयवन्त होवें, समग्र सिद्धिमार्गको प्राप्त हुए सिद्ध भगवान् जयवन्त होवे, जगत्को आनन्द देनेवाला प्रशस्त सूरिसमूह जयवन्त होवे, और विघ्नोंसे रहित साधुओंका प्रबल संघ जगत्में जयवंत होवे ॥ ७४ ।।
जो ज्ञानरूपी परशुसे भव्योंके भव-दुखको छेदते हैं, उन भरतक्षेत्रमें उत्पन्न हुए चौबीस तीर्थकरोंको नमस्कार करो ॥ ७५ ॥
जिनवर वृषभको, गुणोंमें श्रेष्ठ गणधर वृषभको तथा परिषहोंको सहन करनेवाले व धर्मसूत्रके पाठकोंमें श्रेष्ठ यतिवृषभको देखकर नमस्कार करो ॥ ७६ ॥
चूर्णिस्वरूप तथा षट्करणस्वरूपका जितना प्रमाण है, त्रिलोकप्रज्ञप्ति नामक ग्रन्थक भी प्रमाण उतना- आठ हजार श्लोक परिमित है (१) ॥ ७७ ।। इस प्रकार आचार्यपरम्परासे प्राप्त हुई त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें सिद्धलोकस्वरूप
निरूपणप्रज्ञप्ति नामक नववां महाधिकार समाप्त हुआ । प्रवचनभक्तिसे प्रेरित होकर मैंने मार्गप्रभावनाके लिये इस श्रेष्ठ ग्रन्थको कहा है। बहु श्रुतके धारक आचार्य इसे शुद्ध करलें ।
त्रिलोकप्रज्ञप्ति समाप्त हुई।
१९ व अवंधो. २द व समग्गा. ३६ ब बढीणं ४६ सवाणं. ५दसणाणपरेवेडिं. ६ द व सतपादरवस. ७८ व स्वत्वकरण. ८द ब किंजसं. ९८ लोपससरून. १० सम्मकं.
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