SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 484
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ९. ७२ ] वो महाधियारो [ ८८१ जो परदव्वं तु सुहं असुहं वा मण्णदे विमूढमई । सो मूढो अण्णाणी बज्झदि दुट्ठट्ठकम्मेहिं ॥ ६५ । एवं भावणा सम्मत्ता । केवलणाणदिणेसं चोत्तीसादिसय भूदिसंपण्णं । अप्पसरूवम्मि ठिदं कुंथुजिणेसं णमंसामि ॥ ६६ संसारण्णवमहणं तिहुवणभवियाण मोक्खसंजणणं । संदरिसियसयलत्थं ' अरजिणणाहं णमंसामि ॥ ६७ भव्वजण मोक्खजणणं मुनिंददेविंदणमिदपयकमलं । अप्पसुहं संपत्तं मल्लिजिणेसं णमंसामि ॥ ६८ णिट्ठवियघाइकम्मं केवलणाणेण दिट्ठसयलङ्कं । णमह मुणिसुब्वएसं भवियाणं सोक्खदेसयरं ॥ ६९ घणघाइकम्ममहणं मुणिंददेविंदपणदपयकमलं । पणमह णमिजिणणाहं तिहुवणभवियाण सोक्खयरं ॥ ७० इंदरायणमिदचलणं आदसरूवम्मि सरवकालगदं । इंदियसोक्खविमुक्कं णेमिजिणेस णमंसामि ॥ ७१ कमठोपसग्गदलणं तिहुयणभवियाण मोक्खदेसयरं । पणमह पासजिणेसं घाइचउक्कंविणासयरं ॥ ७२ जो मूढमति पर द्रव्यको शुभ अथवा अशुभ मानता है वह मूढ़ अज्ञानी होकर दुष्ट आठ कर्मों से बंधता है ॥ ६५ ॥ इस प्रकार भावना समाप्त हुई । जो केवलज्ञानरूप प्रकाश युक्त सूर्य हैं, चौंतीस अतिशयरूप विभूतिसे सम्पन्न, और आत्मस्वरूपमें स्थित हैं, उन कुंथु जिनेन्द्रको नमस्कार करता हूं ॥ ६६ ॥ जो संसार-समुद्रका मथन करनवाले और तीनों लोकोंके भव्य जीवोंको मोक्षके उत्पादक हैं तथा जिन्होंने सकल पदार्थों को दिखला दिया है ऐसे अर जिनेन्द्रको नमस्कार करता हूं ॥६७॥ जो भव्य जीवोंके लिये मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं, जिनके चरण-कमलों में मुनीन्द्र और देवेन्द्रोंने नमस्कार किया है, और जो आत्मसुखको प्राप्त कर चुके हैं, उन मल्लि जिनेन्द्रको नमस्कार करता ॥ ६८ ॥ जो घातिकर्मको नष्ट करके केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को देख चुके हैं और जो भव्य जीवोंको सुखका उपदेश करनेवाले हैं, ऐसे मुनिसुव्रत स्वामीको नमस्कार करो ॥ ६९ ॥ घनघातिकमा मथन करनेवाले, मुनीन्द्र और देवेन्द्रोंसे नमस्कृत चरण-कमलों से संयुक्त, तथा तीनों लोकोंके भव्य जीवोंको सुखदायक, ऐसे नमि जिनेन्द्रको नमस्कार करो ॥ ७० ॥ सैकड़ों इन्द्रोंसे नमस्कृत चरणोंवाले, सब काल आत्मस्वरूपमें स्थित, और इन्द्रियसुख से रहित, ऐसे नेमि जिनेन्द्रको नमस्कार करता हूं ॥ ७१ ॥ कमठकृत उपसर्गको नष्ट करनेवाले, तीनों लोकों सम्बन्धी भव्योंके लिये मोक्षके उपदेशक और घातिचतुष्टय के विनाशक पार्श्व जिनेन्द्रको नमस्कार करो ॥ ७२ ॥ TP.111 Jain Education International १ द सोक्ख. २ द ब सयलद्वं. For Private & Personal Use Only 7 www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy