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________________ (२५) धूप और पके हुए पनस ( कटहल ), केला, अनार एवं दाख आदि फलोंसे जिनपूजा करते हैं। पूजाके अन्त श्रेष्ठ अप्सराओंसे संयुक्त होकर विविध नाटकोंको करते हैं। तत्पश्चात् निज भवनोंमें आकर अनेक प्रकारके सुखोंका उपभोग करते हैं । ४ नरलोक- महाधिकारमें मनुष्य लोकका निर्देश, जंबूद्वीप, लवण समुद्र, धातकीखण्ड, कालोदक समुद्र, पुष्कराध द्वीप, इन अढ़ाई द्वीप-समुद्रोंमें स्थित मनुष्योंके भेद,संख्या, अल्पबहुत्व, गुणस्थानादि, आयुबन्धक परिणाम, योनि, सुख, दुख, सम्यक्त्वग्रहणके कारण और मोक्ष जानेवाले जीवोंका प्रमाण, इस प्रकार १६ अधिकार हैं । समस्त पद्यसंख्या २९६१ है। बीचमें एक कालभेद प्ररूपक ५ पृष्ठका गद्य भाग भी है । इनमें जंबूद्वीपका वर्णन, वेदिका, भरतादि क्षेत्रों और कुलपर्वतोंका विन्यास, मरत क्षेत्र, उसमें प्रवर्तमान छह काल, हिमवान्, हैमवत, महाहिमवान, हरिवर्ष, निषध, विदेह क्षेत्र, नील पर्वत, रम्पक क्षेत्र, रुक्मि पर्वत, हैरण्यवत क्षेत्र, शिवरी पर्वत और ऐरावत क्षेत्र, इन १६ अन्तराधिकारों द्वारा बहुत विस्तारपूर्वक किया गया है। यहां विजयार्ध पर्वत और गंगा-सिंधु नदियों द्वारा छह खण्डोंमें विभक्त हुए मरत क्षेत्रके आर्यखण्डमें प्रवर्तमान उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी स्वरूप सुषम-सुषमादि छह कालोंकी विस्तृत प्ररूपणा है । इस प्रकरणमें बतलाया गया है कि सुषम-सुषमा, सुषमा और सुषम-दुःषमा, इम तीन कालोंमें क्रमशः उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि जैसी रचना होती है । इनमें युगल-युगल रूपसे उत्पन्न होनेवाले पुरुष-स्त्री पति-पत्नी जैसा आचरण करते हैं। यहां धर्म-कर्मका विवेक कुछ नहीं रहता । स्वामि-भृत्यादिका भेद भी नहीं होता । वैवाहिक संस्कारादि एवं कृषि आदि कर्म भी नहीं पाये जाते । वहां दस प्रकारके कल्पवृक्ष होते हैं जिनसे युगलोंको आवश्यक सामग्री प्राप्त होती रहती है । वर्तमान इतिहाप्समें जो यह बतलाया जाता है कि प्रारम्भमें मनुष्य जंगली थे, उस समय उनमें कुछ विवेक नहीं था । वे धीरे धीरे उन्नति करते हुए आजकी अवस्थामें आये इत्यादि, सम्भव है उसका मूल स्रोत यही व्यवस्था रही हो । . आगे कहा गया है कि जब तृतीय कालमें पल्योपमका आठवां भाग (१) शेष रहता है तब क्रमशः प्रतिश्रुति आदि चौदह कुल कर पुरुष उत्पन्न होते हैं जो प्रजाजनोंको भिन्न भिन्न विषयोंका उपदेश देते हैं ( देखिये यंत्र नं. ३ )। उनमें अन्तिम कुलकर नाभिराय थे। इन्होंने कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेपर व्याकुलताको प्राप्त हुई प्रजाको आजीविकोपयोगी साधनोंका उपदेश दिया व भोजनादिकी सारी ही व्यवस्थायें समझाई । तत्पश्चात् २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ विष्णु, ९ प्रतिशत्रु और ९ बलदेव, इस प्रकार ६३ शलाकापुरुष उत्पन्न होते हैं। इनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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