SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२१) त्रिलोकप्रज्ञप्तिको प्रस्तावना कलत्रादि निज परिवार या मित्रोंके जीवनार्थ तृष्णावश हो परवंचनपूर्वक धनका उपार्जन करते हैं घे नरकोंमें जाकर महान् कष्टको सहते हैं। ___यहां गा. ४ में की गई प्रतिज्ञाके अनुसार नारक जीवोंमें योनियोंकी प्ररूपणा की जानी चाहिये थी, परन्तु वह उपलब्ध नहीं हैं । सम्भव है मूल प्रतियोंमें योनिप्ररूपक गाथायें छूट गई हों और . उनके स्थानमें उपर्युक्त ५ छन्द प्रक्षिप्त हो गये हों । योनियोंके वर्णनका क्रम चतुर्थ ( गा. २९४८.५३ ), पंचम (गा. २९३.९७) और अष्टम (गा. ७००-७०१) महाधिकारोंमें बराबर पाया जाता है । ३ भावनलोक-महाधिकारमें २१३ पद्य हैं। यहां भवनवासी देवोंका निवासक्षेत्र, उनके भेद, चिह, भवन संख्या, इन्द्रोंका प्रमाण व नाम, दक्षिण-उत्तर इन्द्रोंका विमाग व उनके भवनोंका प्रमाण, अल्पर्द्धिक, महर्द्धिक एवं मध्यमद्धिक भवनवासी देवोंके भवनोंका विस्तार, भवन, वेदी, कूट, जिनेन्द्रप्रासाद, इन्द्रविभूति, संख्या, आयुप्रमाण, शरीरोत्सेध, अवधिविषय, गुणस्थानादि, एक समयमें उत्पन्न होनेवाले व मरनेवालोंकी संख्या, आगति, भवनवासी देवोंकी आयु बांधनेवाले परिणाम और सम्यग्दर्शनग्रहणके कारण, इत्यादिका विशेष विवेचन किया है। (विशेष परिचयके लिये देखिये परिशिष्टमें यंत्र नं. २, ४ और १८)। भायुबन्धक परिणामों के प्रकरणमें बतलाया है कि जो ज्ञान व चरित्रके विषयमें शंकित हैं, क्लेशभावसे संयुक्त हैं, अविनयमें आसक्त हैं, कामिनीविरहसे व्याकुल हैं व कलहप्रिय हैं; वे संज्ञी-असंज्ञी जीव मिथ्यास्वभावसे संयुक्त होकर मवनवासी देवोंकी आयुको बांधते हैं; सम्यग्दृष्टि जीव कदापि वही उत्पन्न नहीं होते । असत्यभाषी, हास्यप्रिय एवं कन्दर्पानुरक्त जीव कन्दर्प देवोंमें जन्म लेते हैं । भूतिकर्म, मंत्रामियोग व कौतूहलादिसे संयुक्त तथा चाटुकार जीव वाहनदेवोंमें उत्पन्न होते हैं। तीर्थकर, संघ एवं आगमग्रन्थादिकके विषयमें प्रतिकूल आचरण करनेवाले दुर्विनयी मायाचारी प्राणी किल्विष सुरोंमें उत्पन्न होते हैं। उन्मार्गोपदेशक व जिनेन्द्रमार्गमें विप्रतिपन्न (विवादयुक्त) प्राणी संमोहसुरोंमें जन्मग्रहण करते हैं। क्रोध, मान, माया व लोभमें आसक्त; निकृष्ट आचरण करनेवाले तथा वैरभावसे संयुक्त जीव असुरोंमें उत्पन्न होते हैं। जन्मग्रहणके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें ही छह पर्याप्तियोंसे परिपूर्ण होकर वे देव वहाँ उत्पन्न होनेके कारणका विचार करते हैं। पुनः व्यवसायपुरमें प्रविष्ट हो पूजा व अभिषेकके योग्य द्रव्योंको लेकर बड़े आनन्दके साथ जिनालयको जाते हैं। वहां पहुंच कर देवियोंके साथ विनीत भावसे प्रदक्षिणापूर्वक जिनप्रतिमाओंका दर्शन कर जय-जय शब्द करते हैं । पश्चात् नाना वादित्रोंके साथ जल, चंदन, तंदुल, पुष्पमाला, नानाविध भक्ष्य द्रव्य (नैवेद्य ), रत्नप्रदीप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy