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________________ ग्रंथका विषयपरिचय (२३) निकलनेवाले नारक जीवोंके सम्यग्दृष्टि होनेका स्पष्टतः निषेध किया है । शेष विधि प्रायः वहाँ भी समान रूपसे पायी जाती है। ___गा. २९३ में नारकायुबन्धके कारणका उल्लेख करते हुए कहा है कि आयुबन्धके समय शिला, शैल, वेणुमूल और कृमिरागके सदृश कषायों (क्रपशः क्रोध, मान, माया, लोभ ) का उदय होनेपर नारकायुका बन्ध होता है । यही बात गो. जीवकाण्डकी गा. २८३.२८६ में भी निर्दिष्ट है। आगे गा. २९४ में कहा है कि कृष्ण, नील और कापात लेश्याके उदयसे जीव नारकायुको बांधकर मरनेपर उक्त लेश्याओंके साथ नरकको प्राप्त होते हैं । ऐसा ही उपदेश । कुछ विशेषताके साथ गो. जीवकाण्ड गा. ५२३-२५ में भी पाया जाता है। गा.२९५-३०१ में कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंके कुछ लक्षण बतलाये गये हैं। गा. ३०२-३१२ में नागकियोंके जन्मस्थानोंका आकार व विस्तार आदि बतलाया गया है । ये जन्मस्थान इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंके ऊपरी भागमें स्थित हैं। इनमें जन्म लेकर नारक जीव नीच गिरते हैं और गेंदके समान पुनः ऊपर उछलते हैं। गा. ३१३-३५८ में नारको जीवोंके महान् दुःखोंकी प्ररूपणा है। इस प्रकरण में यह भी बतलाया है कि जिस प्रकार इस लोकमें मनुष्य मेष-महिषादिको लड़ाकर उनकी हार-जीतपा प्रसन्न होते हैं, उसी प्रक र तृतीय पृथिवी तक कुछ असुरकुमार जातिके देव नारकियोंको लडाकर उससे सन्तुष्ट होते हैं । उक्त देवोंके कुछ नाम भी यहां निर्दिष्ट हैं । जैसे सिकसानन, असिपत्र, महाबल, महाकाल, श्याम, शबल, रुद्र, अम्बरीष, विलसित, महारुद्र, महावर, काल, आग्नरुद्र, कुम्म और वैतरणी आदि । ये नाम अभी तक हमें किसी अन्य दिगम्बर ग्रन्थमें नहीं उपलब्ध हुए हैं । परन्तु कुछ श्वताम्बर प्रन्योंमें साधारण मेदके साथ ये नाम अवश्य पाये जाते हैं। ग'. ३५९-३६१ में सभ्यग्दर्शन ग्रहणके कारणों का निर्देश कर आगेके ५ छन्दोंमें बतलाया गया है कि जो जीव मद्य-मांसका सेवन करते हैं, हिंसामें आसक्त हैं; क्रोध, लोभ, भय, अथवा मोहके वशीभूत हो असत्यभाषण करते हैं, परधन-हरण करते हैं, कामोन्मत्त होकर निर्लज्जतापूर्वक परदारासक्त होते हैं या रात्रिंदिव विषयसेवन करते हैं, तथा जो पुत्र १ अंबे अंपरिसी चेव सामे य सबले वि य । रोबोवरुद्द काले य महाकाले ति आवरे ।। आसिपत्ते धणं कुंभे वालु वेयरणी वि य । खरस्सरे महाघोसे एवं पण्णरसाहिया ॥ सूपकृतांग १, ५, नि. ६८-६९;. प्रवचनसारोवार १०८५-८६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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