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________________ ८७१] तिलोयपण्णत्ती [९.११पण्णासुत्तरतिसया उक्कस्सोगाहणं हबे दंडं । तियभजिदसत्तहत्था जहण्णओगाहणं ताणं ॥" पाठान्तरम्। ३५० । ह। तणवादपवणबहले द्रोहिं गुणि णवेण भजिदम्मि । जलद्धं सिद्धाणं उकस्सोगाणं ठाणं ॥ १२ २२५० । १५७५ । ५०० । । । एदेण तेरासिलद्धं २ । १५७५ । ३५० । तणवादस्स य बहले छस्सयपण्णत्तरीहि भजिदम्मि । जलद्धं सिद्धाणं जहाणओगाहणं होदि ।। १३ १३५००००० । १५७५ । २००० ।। तेरासिएण सिद्धं १५७५|| ६७५ |३॥ पाठान्तरम् । भवरुक्कस्समझिममोगाहणसहिदसिद्धजीवाओ । होति अणंता एकेणोगाहिदेखत्तमज्झम्मि ॥ १४ माणुसलोयपमाणे संठियतणुवादउवरिमे भागे । सरिस सिरा सव्वाणं हेट्टिमभागम्मि विसरिसा केई ॥ जावद्धं गंदब्वं तावं गंतूण लोयसिहरम्मि । चेटुंति सव्वसिद्धा पुह पुह गयसित्थैमूसगब्भणिहा ॥ १६ । ओगाहणा गदा। सिद्धोंकी उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ पचास धनुष और जघन्य अवगाहना तीनसे भाजित सात हाथ प्रमाण है ॥ ११ ॥ पाठान्तर । उ. ३५० ध. । ज. ५ हा.। तनुवात पबनके बाहल्यको दोसे गुणित कर नौका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना सिद्धोंकी उत्कृष्ट अवगाहनाका स्थान होता है ॥ १२ ॥ १५७५ x २ ९ = ३५० धनुष । तनुवातके बाहल्यमें छह सौ पचहत्तरका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतनी सिद्धोंकी जघन्य अवगाहना होती है ॥ १३ ॥ १५७५ + ६७५ = २३ ध. । एक जीवसे अवगाहित क्षेत्रके भीतर जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अवगाहनासे सहित अनन्त सिद्ध जीव होते हैं ॥ १४ ॥ मनुष्यलोक प्रमाण स्थित तनुवातके उपरिम भागमें सब सिद्धोंके सिर सदृश होते हैं। अधस्तन भागमें कोई विसदृश होते हैं ॥ १५ ॥ जितना मार्ग जाने योग्य है उतना जाकर लोकशिखरपर सब सिद्ध पृथक् पृथक् मोमसे रहित मूषकके अभ्यन्तर आकाशके सदृश स्थित हो जाते हैं ॥ १६ ॥ अवगाहनाका कथन समाप्त हुआ। १द तेरासियं २ ब एक्केणोगहिद. ३दब गयसिद्ध. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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