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rant महाधियारो
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णिरुवमरूवा गिट्टियकजा णिखा णिरंजणा णिरुजा । णिम्मलबोधा सिद्धा णिरुवं जाणंति हु एकसमपुर्ण ॥
| सोक्खं सम्मत्तं ।
जह चिरसंचिदसिंघणमणलो पचणाइदो लहुं डहदि । तह कम्मिंधणमहियं खणेण झाणापालो दहइ ॥ १८ जो खविद मोहकलुसो विसयविरत्तो मणो निरंभित्ता । समवद्विदो सहावे सो पावह णिव्वुदीसोक्लं ॥ जस्स ण विजदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो । तस्स सुहासुहदद्दणो झाणमभो जायदे भगणी ॥ दंसणणाणसमग्गं नाणं णो अण्णदव्वसंसत्तं । जायदि णिज्जर हेदू सभावसहिदस्स साहुस्स ॥ २१ जो सव्वसंगमुको गण्णमणो अप्पणी सहावेण । जाणदि पस्सदि आदं सो सगचरियं चरदि जीओ ॥ २२ णामि भावणा खलु कादव्वा दंसणे चरिते य । ते पुण आदा तिष्णि वि तम्हा कुण भावणं आहे ॥ अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणप्पगो सदारुवी । ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि ॥
अनुपम स्वरूपसे संयुक्त, कृतकृत्य, नित्य, निरंजन, नीरोग और निर्मल बोधसे युक्त सिद्ध एक ही समय में समस्त पदार्थों को सदैव जानते हैं ॥ १७ ॥
सौख्यका कथन समाप्त हुआ ।
जिस प्रकार चिरसंचित ईंधनको पवनसे आहत अग्नि शीघ्र ही जला देती है, उसी प्रकार ध्यानरूपी अग्नि अधिक कर्मरूपी ईंधनको क्षणमात्र में जला देती है ॥ १८ ॥
जो दर्शनमोह और चारित्रमोहको नष्ट कर विषयोंसे विरक्त होता हुआ मनको रोककर आत्मस्वभावमें स्थित होता है वह मोक्षसुखको प्राप्त करता है ॥ १९ ॥
जिसके राग, द्वेष, मोह और योगपरिकर्म ( योगपरिणति ) नहीं हैं उसके शुभाशुभ ( पुण्य-पाप ) को जलानेवाली ध्यानमय अग्नि उत्पन्न होती है ॥ २० ॥
शुद्ध स्वभावसे सहित साधुका दर्शन- ज्ञानसे परिपूर्ण ध्यान निर्जराका कारण होता है, अन्य द्रव्यों से संसक्त वह निर्जराका कारण नहीं होता ॥ २१ ॥
जो अन्तरङ्ग बहिरङ्ग सर्व संगसे रहित और अनन्यमन अर्थात् एकाग्रचित्त होता हुआ अपने चैतन्य स्वभावसे आत्माको जानता व देखता है वह जीव आत्मीय चारित्रका आचरण करता है ॥ २२ ॥
ज्ञान, दर्शन और चारित्रमें भावना करना चाहिये । चूंकि वे तीनों ( दर्शन, ज्ञान और चारित्र ) आत्मस्वरूप हैं इसीलिये आत्मा में भावनाको करो ॥ २३ ॥
मैं निश्चयसे सदा एक, शुद्ध, दर्शन- ज्ञानात्मक और अरूपी हूं। मेरा परमाणु मात्र भी अन्य कुछ नहीं है ॥ २४ ॥
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१६ व पिविदमोह के खलुसो २ द ब अण्णो अप्पणा. ३ द व गाणपगा सगारूवी. ४ द व अणि.
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