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तिलोयपण्णत्ती
[ ८.६६९
दोण्डं दोन्हं छर्क दोन्हं तह तेरसाण देवाणं । लेस्साओ चोद्दसण्डं वोच्छामो भाणुपुब्बीए ॥ ६६९ ऊए मज्झिमंसा तेक्कस्सप मभवरंसा । पउमाए मज्झिमंसा पउमुक्कस्तं ससुक्कअवरंसा ॥ ६७० सुक्काय मज्झिमंत्रा उक्करसंसा य सुकलेस्साए । एदाओ लेस्साओ गिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं ॥ ६७१ सोहम्मप्पहुदीणं एदाओ' दव्वभावलेस्साभो । उवरिमगेवजंतं भव्वाभध्वा सुरा होंति ॥ ६७२ ततो वरं भन्दा उवरिमगेवज्जयस्स परियंतं । छन्भेदं सम्मतं उवरिं उवसमियखइयेवेदगया || ६७३ सब्वे सण्णीओ देवा आहारिणो अणाहारा । सागारअगागारा दो चैव य होंति उवजोगा || ६७४ कप्पा कप्पादीदा दुचरमदेहा हवंति केद्द सुरा । सक्को सहग्गमहिसी सलोयवालो य दक्खिणा इंदा ॥ सष्वट्टसिद्धिवासी कोयंतियणामधेय सब्वसुरा । णियमा दुचरिमदेहा सेसेसुं णत्थि नियमो य || ६७६ | एवं गुणठाणादिपरूत्रणा समत्ता ।
( सौधर्म - ईशान ), दो ( सनत्कुमार - माहेन्द्र ), ब्रह्मादिक छह, शतारद्विक, आनतादि नौ ग्रैवेयक पर्यन्त तेरह, तथा चौदह ( नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर ), इन देवोंके अनुक्रमसे लेश्याओंको कहते हैं- सौधर्म और ईशान में पीतका मध्यम अंश, सनत्कुमार और माहेन्द्र में पदूमके जघन्य अंशसे सहित पीतका उत्कृष्ट अंश, ब्रह्मादिक छहमें पद्मका मध्यम अंश, शतारयुगलमें शुक्कलेश्याके जघन्य अंशसे सहित पदुमका उत्कृष्ट अंश, आनतादि तेरह में शुक्लका मध्यम अंश और अनुदिशादि चौदह में शुक्ललेश्याका उत्कृष्ट अंश होता है; इस प्रकार सर्वज्ञ देवने देवों में ये लेश्यायें कही हैं। सौधर्मादिक देवोंके ये द्रव्य व भाव लेश्यायें समान होती हैं । उपरिम ग्रैवेय पर्यन्त देव भव्य व अभव्य दोनों तथा इससे ऊपर भव्य ही होते हैं । उपरिम ग्रैवेय पर्यन्त छों प्रकारका सम्यक्त्व तथा इससे ऊपर औपशमिक, क्षायिक और वेदक ये तीन सम्यक्त्व होते हैं । वे सब देव संज्ञी तथा आहारक एवं अनाहारक होते हैं । इन देवोंके साकार और अनाकार दोनों ही उपयोग होते हैं ।। ६६९–६७४ ॥
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कल्पवासी और कल्पातीतों में से कोई देव द्विचरमशरीरी अर्थात् आगामी भवमें मोक्ष प्राप्त करनेवाले हैं । अग्रमहिषी और लोकपालोंसे सहित सौधर्म इन्द्र, दक्षिण इन्द्र, सर्वार्थसिद्धि'वासी तथा लौकान्तिक नामक सब देव नियमसे द्विचरमशरीरी हैं। शेष देवोंमें नियम नहीं है ।। ६७५-६७६ ॥
इस प्रकार गुणस्थानादिप्ररूपणा समाप्त हुई ।
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१ ब एदानं. २ द ब उवसस मियखइखय. ३ द ब मच्छासि.
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