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________________ ८६४ ] तिलोयपण्णत्ती [८.६५२सम्बसिद्धिइंदयकेदणदंडादु उवरि गंतूणं । बारसजायणमेत्तं भट्टमिया चेहदे पुढवी ॥ ६५२ पुष्वावरेण तीए उपरिमहेहिमतलेसु पत्तेक्कं । वासो हवेदि एक्का रज्जू' स्वेण परिहीणा ॥ ६५३ उत्तरदक्षिणमाए दीहा' किंचूणतत्तरज्जूभो । वेत्तासणसंठाणा सा पुढवी अट्ठजोयणा बहला ॥ ६५४ जुत्ता घणोवहिषणामिलतणुकादेहि तिहि समीरेहिं । जोयणवीससहस्सं पमाणबहलेहि पत्तेक्कं ॥ ६५५ एदाए बहुमझे खेत्तं णामेण इंसिपब्भारं । भज्जुणसुवण्णसरिसं णाणारयणेहिं परिपुण्णं ॥ ६५६ उत्ताणधवलछ सोवमाणसंठाणसुंदरं एवं । पंचत्तालं जोयणलक्खाणि वाससंजुत्तं ॥ ६५७ तम्मनबहलस, जोयणया अंगुलंपियंतम्मि । अट्रमभूमज्झगदो तप्परिही मणुषखेत्तपीरहिसमो॥ ६५८ सर्वार्थसिद्धि इन्द्रकके ध्वजदण्डसे बारह योजन मात्र ऊपर जाकर आठवीं पृथिवी स्थित है ॥ ६५२ ॥ उसके उपरिम और अधस्तन तल से प्रत्येकका विस्तार पूर्व-पश्चिममें रूपसे रहित एक राजु प्रमाण है ॥ ६५३ ॥ वेत्रासनके सदृश वह पृथिवी उत्तर दक्षिण भागमें कुछ कम सात राजु लंबी और आठ योजन बाहल्यवाली है ॥ ६५४ ॥ यह पृथिवी घनोदधि, घनवात और तनुवात इन वायुओंसे युक्त है । इनमेंसे प्रत्येक वायुका बाहल्य बीस हजार योजन प्रमाण है ॥ ६५५ ॥ इसके बहुमध्य भागमें चांदी एवं सुवर्णके सदृश और नाना रत्नोंसे परिपूर्ण ईषत्प्राग्भार नामक क्षेत्र है ।। ६५६ ॥ यह क्षेत्र उत्तान धवल छत्रके सदृश आकारसे सुन्दर और पैंतालीस लाख योजन प्रमाण विस्तारसे संयुक्त है ।। ६५७ ॥ उसका मध्यबाहल्य आठ योजन और अन्तमें एक अंगुल मात्र है । अष्टम भूमिमें स्थित सिद्ध क्षेत्रकी परिधि मनुष्य क्षेत्रकी परिधिके समान है ॥ ६५८ ॥ मध्य बा. ८ यो., अन्त बा. १ अं. । १द ब रज्जो. २ द ब दीहिं. ३ दब घणाणिलवावादेहि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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