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________________ -८. ६५१ ] अट्ठमो महाधियारो [८६३ तित्थयराणं समए परिणिक्कमणम्मि जति ते सव्वे । दुचरिमदेहा देवा बहुविसमकिलेसउम्मुक्का' ॥ ६४४ देवरिसिणामधेया सम्वेहिं सुरेहि अञ्चणिजा ते । भत्तिपसत्ता सज्झयसाधीणा सव्वकालेसु ॥ ६४५ इह खेत्ते वेरग्गं बहुभेयं भाविदूण बहुकालं । संजमभावेहि मुणी देवा लोयंतिया होंति || ६४६ थुइणिदासु समाणो सुहदुक्खेसुं सबंधुरि उवग्गे । जो समणो सम्मतो सो चिय लोयंतिओ होदि ॥ ६४७ जे हिरवेक्खा देहे णिहंदा णिम्ममा णिरारंभा । णिरवजा समणवरा ते च्चिय लोयंतिया होति ॥ ६४८ संजोगविप्पयोगे लाहालाहम्मि जीविदे मरणे । जो समदिट्ठी समणो सो च्चिय लोयंतिओ होदि । ६४९ अणवरदसमं पत्ता संजमसमिदीसं झाणजोगेसुं। तिव्वतवचरणजुत्ता समणा लोयंतिया होति ॥ ६५० पंचमहब्वयसहिदा पंचसु समिदीसु चिरम्नि चेटुंति । पंचक्ख विसयविरदा रिसिणो लोयंतिया होति ॥ द्विचरम शरीरके धारक अर्थात् एक ही मनुष्य जन्म लेकर मोक्ष जानेवाले, और अनेक विषम क्लेशोंसे रहित वे सब देव तीर्थंकरोंके दीक्षासमयमें जाते हैं ॥ ६४४ ॥ . देवर्षि नामवाले वे देव सब देवोंसे अर्चनीय, भाक्तिमें प्रसक्त और सर्व काल स्वाध्यायमें स्वाधीन होते हैं ॥ ६४५ ॥ इस क्षेत्रमें बहुत काल तक बहुत प्रकार के वैराग्यको भाकर संयमसे युक्त मुनि लौकान्तिक देव होते हैं ॥ ६४६॥ जो सम्यग्दृष्टी श्रमण ( मुनि ) स्तुति और निन्दामें, सुख और दुखमें तथा बन्धु और रिपु वर्गमें समान है वही लौकान्तिक होता है ॥ ६४७ ॥ जो देहके विषय निरपेक्ष, निर्द्वन्द, निर्मम, निरारम्भ और निरवद्य हैं वे ही श्रेष्ठ श्रमण लौकान्तिक देव होते हैं । ६४८ ॥ जो श्रमण संयोग और विप्रयोगमें, लाभ और अलाभमें तथा जीवित और मरणमें समदृष्टि होते हैं वे ही लौकान्तिक होते हैं ॥ ६४९ ॥ संयम, समिति, ध्यान एवं समाधिके विषयमें जो निरन्तर श्रमको प्राप्त हैं अर्थात् सावधान हैं, तथा तीव्र तपश्चरणसे संयुक्त हैं वे श्रमण लौकान्तिक होते हैं ॥ ६५० ॥ ___ पांच महाव्रतोंसे सहित, पांच समितियोंका चिर काल तक आचरण करनेवाले, और पाचों इन्द्रिय-विषयोंसे विरक्त ऋषि लौकान्तिक होते हैं ॥ ६५१ ॥ १ द ब उमुक्का. २ द ब मणा. ३ द ब होति. ४द ब सजोगछिपयोगे. ५दब सम्मदिहि, ६द ब पत्तो. ७दब घिराण. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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