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८६२) तिलोयपण्णत्ती
[८. ६३५लोयविभायाइरिया' सुराण लोअंतिआण वक्खाणं । अण्णसरूवं वेंति त्ति तं पि एहि परूवेमो ॥ ६३५ पुवुत्तरदिब्भाए' वसंति सारस्सदाभिधागसुरा । आइच्चा पुवाए वहिदिसाए सुरवरा वण्ही ॥ ६३६ दक्खिणदिसाए अरुणा णइरािदेभागम्मि गद्दतोया य । पच्छिमदिसाए तुसिदा अब्वाबाधा मरुदिसाए ॥ उत्तरदिसाए रिट्ठा अग्गिदिसाए वि होति मज्झम्मि । एदाणं पत्तेयं परिमाणाई परूवेमो ॥ ६३८ पत्तेक्कं सारस्सदआइच्चा तुसिदगद्दतोय। य । सत्तुत्तरसत्तसया सेसा पुचोदिदपमाणा ॥ ६३९
पाठान्तरम् । पत्तेक्कं पण हत्था उदओ लोयंतियाण देहेसुं । अट्टमहण्णवउवमा सोहंते सुक्कलेस्साओ । ६४० सम्वे लोयंतसुरा एक्कारसभंगधारिणो णियमा । सम्मइंसणसुद्धा होति सतित्ता सहावेणं ॥ ६४१ महिलादी परिवारा ण होति एदाण संततं जम्हा । संसारखवणकारणवेरग्गं भावयंति ते तम्हा ॥ ६४२ अद्धवमसरणपहुदिं भावं ते भावयति अगवरदं । बहुदुक्खसलिलपूरिदसंसारसमुद्दबुड्डणभएणं ॥ ६४३
लोकविभागाचार्य लौकान्तिक देवोंका व्याख्यान अन्य रूपसे करते हैं; इसलिये उसे भी अब हम कहते हैं ॥ ६३५॥
पूर्व-उत्तर कोणमें सारस्वत नामक देव, पूर्वमें आदित्य, अग्नि दिशामें वह्नि देव, दक्षिण दिशामें अरुण, नैऋत्य भागमें गर्दतोय, पश्चिम दिशामें तुषित, वायु दिशामें अव्याबाध और उत्तर दिशामें तथा अग्नि दिशाके मध्यमें भी अरिष्ट देव रहते हैं। इनमेंसे प्रत्येकके प्रमाणको कहते हैं । सारस्वत और आदित्य तथा तुषित और गर्दतोयमें से प्रत्येक सात सौ सात और शेष देव पूर्वोक्त प्रमाणसे युक्त हैं ॥ ६३६-६३९ ॥
पाठान्तर । लौकान्तिक देवों से प्रत्येकके शरीरका उत्सेध पांच हाथ और आयु आठ सागरोपम प्रमाण होती है । ये देव शुक्ल लेश्यासे शोभायमान होते हैं ॥ ६४० ॥
___ सब लौकान्तिक देव नियमसे ग्यारह अंगके धारी, सम्यग्दर्शनसे शुद्ध और स्वभावसे ही तृप्त होते हैं ॥ ६४१ ॥
___ चूंकि इनके निरंतर महिलादिक रूप परिवार नहीं होते हैं इसीलिये ये संसार क्षयके कारणभूत वैराग्यकी भावना भाते हैं ॥ ६४२ ॥
बहुत दुःख रूप जलसे परिपूर्ण संसार रूपी समुद्रमें डूबनेके भयसे वे लौकान्तिक देव निरंतर अनित्य व अशरण आदि भावनाओंको भाते हैं ॥ ६४३ ॥
१द ब लोयविभाइरिया. २द ब अण्णसरूव हुति तिं पिण्हं. ३ द पुव्व तदिन्माए, व पुव्वं व तविभाए. ४ह व सारस्सतिसादाभिधाणमुरा. ५द ब पुहंत. ६ह ब जे.
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