SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 462
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ८. ६२० ] अट्टम महाधि [ ८५९ बाहिरराजीहिंतो दोष्णं राजीण जो दु विश्वालो | अधिरित्तो हय अप्पाबहुवं होदि हु चउद्दिसासुं पि ॥ एदम्मि तमिस्से जे विहरते अप्प रिद्धिया देवा । दिम्मूढा वञ्चते माहप्पेणं' महद्वियसुराणं ॥ ६१३ राजीणं विश्वाले संखेज्जा होइ बहुविहविमाणा । एदेसु सुरा जादा खादा' लोयंतिया णाम ॥ ६१४ संसारवारिरासी जो लोओ तस्स होंति अंतम्मि । जम्दा तम्हा एदे देवा लोयंतिय त्ति गुणणामा ॥ ६१५ ते लोयंतियदेवा अट्ठसु राजीसु होंति विच्चाले । सारस्सदपहुदि तदा ईसाणादिअदिसासु' चडवीसं ॥ २४ । पुव्युत्तरदिभा वसंत सारस्वदा सुरा णिच्चं । आइच्चा पुव्वाए अगलदिसाए वि वहिसुरा ॥ ६१७ दक्खिदाए वरुणा इरिदिभागम्मि गद्दतोया य । पच्छिमदिसाए तुसिदा अव्वाबाधा समीरदि०भाए ॥ उत्तरदिसाए रिट्ठा" एमेते अट्ठ ताण विच्चाले | दोहो हवंति अण्ण' देवा तेसुं इमे णामा ॥ ६१९ सारस्सदणामाणं आइच्चाणं सुराण विच्चाले | अणलाभा सूराभा' देवा चेट्ठति नियमेणं ॥ ६२० बाह्य राजियोंसे दोनों राजियोंका जो अन्तराल है वह अधिक है । इस प्रकार चारों दिशाओं में भी अल्पबहुत्व है ॥ ६१२ ॥ इस अन्धकारमें जो अल्पर्द्धिक देव दिग्भ्रान्त होकर विहार करते हैं वे वहां महर्द्धिक देवों के माहात्म्यसे निकल पाते हैं ॥ ६१३ ॥ राजियोंके अन्तरालमें संख्यात बहुत प्रकार के विमान हैं । इनमें जो देव उत्पन्न होते हैं वे लौकान्तिक नामसे विख्यात हैं ॥ ६१४ ॥ संसार-समुद्ररूपी जो लोक है उसके चूंकि वे अन्तमें हैं इसीलिये ये देव ' लोकान्तिक' इस सार्थक नामसे युक्त हैं ॥ ६१५ ॥ वे सारस्वत आदि लैौकान्तिक देव आठ राजियोंके अन्तराल में हैं । ईशान आदिक दिशाओं में चौबीस देव हैं ॥ ६१६ ॥ २४ । पूर्व - उत्तर दिग्भाग में सर्वदा सारस्वत देव, पूर्व दिशामें आदित्य, अग्नि दिशामें वह्नि देव, दक्षिण दिशामें वरुण, नैऋत्य भागमें गर्दतोय, पश्चिम दिशामें तुषित, वायु दिग्भागमें अव्याबाध, और उत्तर दिशामें अरिष्ट, इस प्रकार ये आठ देव निवास करते हैं । इनके अन्तरालमें दो दो अन्य देव हैं । उनके ये नाम हैं ॥ ६१७-६१९॥ सारस्वत और आदित्य नामक देवोंके अन्तरालमें नियमसे अनलाभ और सूर्याभ देव स्थित हैं ॥ ६२० ॥ १ द व वाहवेर्ण. २ द ब नादा. ३ द ब जे. ४ द ब राजीसु व होति. ५द व ईसानदिसादिअसुर ६ द ब सारस्सदो. ७ द ब अरिट्ठा ८ द ब अण्णं. ९ द ब भणलाभसुरामा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy