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________________ ८५८] तिलीयपण्णत्ती [८.६०१संखेज्जजोयणाणि तमकायादा दिसाए पुच्चाए । गच्छिय सडंसमुखायारधरो' दक्खिणुत्तरायामा ॥ ६०१ णामेण किण्हराई पच्छिमभागे वि तारिसो य तमो' । दक्खिणउत्तरभागे तम्मेत्तं गंधुव दीहचउरस्सा ॥ एक्केक्ककिणराई हुवेदि पुव्वावरहिदायामा । एदाओ राजीओ णियमा पछिवंति अण्णोणं ॥ ६०३ संखेजजोयणाणि राजीहितो दिसाए पुवाए । गंतूगभंतरए राजी किण्हा य दीइचउरस्सा ॥ ६०४ उत्तरदक्खिणदीहा दक्खिणराजिं ठिदा य छिविदूर्ण । पच्छिमदिसाए उत्तरराजि छिविदूण होदि अण्णतमो ॥ संखेजजोयणाणि राजीदो दक्खिणाए आसाए । गंतूणभंतरए एक चिय किणराजिय होइ ॥ ६०६ दीहेण छिंदिदस्स य जवखेत्तस्सेकभागसारिच्छा । पच्छिमबाहिरराजि छिपिदूगं सा ठिदा णियमा ॥६०७ पुवावरआयामो तमकाय दिसाए होदि तपट्ठी । उत्तरभागम्मि तमो एको छिविदूग पुव्यवहिराजी ॥ अरुणवरदीवबाहिरजगदीए तह य तमसरीरस्स । विच्चाल णहयलाहो अब्भंतरराजितिभिरकायाणं ॥६०९ विच्चालं मायासे तह संखेजगुणं हवेदि णियमेणं । तं माणादो णेयं अभंतरराजिसंखगुणजुत्ता॥६१. अन्भंतरराजीदो अधिरेगजुदो हवेदि तमकाओ । अब्भंतरराजीदो बाहिरराजी व किंचूणा ॥ ६११ तमस्कायसे पूर्व दिशामें संख्यात योजन जाकर पट्कोण आकारको धारण करनेवाला और दक्षिण-उत्तर लंबा कृष्णराजी नामक तम है । पश्चिम भागमें भी वैसा ही अंधकार है । दक्षिण व उत्तर भागमें उतनी मात्र आयत, चतुष्कोण और पूर्व-पश्चिम आयामवाली एक एक कृष्णराजी स्थित है। ये राजियां नियमसे परस्पर में एक दूसरेको स्पर्श नहीं करती हैं ॥६०१-६०३॥ राजियोंसे संख्यात योजन पूर्व दिशामें अभ्यन्तर भागमें जाकर आयतचतुरस्र और उत्तर-दक्षिण दीर्घ कृष्णराजी है जो दक्षिण राजीको छूती है । पश्चिम दिशामें उत्तर राजीको छूकर अन्य तम है ॥ ६०४-६०५ ॥ राजीसे दक्षिण दिशामें अभ्यन्तर भागमें संख्यात योजन जाकर एक ही कृष्ण राजी - दीर्घताकी ओरसे छेदे हुए यवक्षेत्रके एक भागके सदृश वह राजी नियमसे पश्चिम बाह्य राजीको छूकर स्थित है ॥ ६०७ ॥ दिशामें पूर्वापर आयत तमस्काय है (?)। उत्तर भागमें पूर्व बाह्य राजीको छूकर एक तम है॥ ६०८॥ अरुणवर द्वीपकी बाह्य जगती तथा तमस्कायके अन्तरालसे अभ्यन्तर राजीके तमस्कायोंका अन्तरालप्रमाण नियमसे संख्यातगुणा है । इस प्रमाणसे अभ्यन्तर राजी संख्यातगुणी है । अभ्यन्तर राजीसे अधिक तमस्काय है । अभ्यन्तर राजीसे बाह्य राजी कुछ कम है ॥६०९-६११॥ १द ब सदंसमुखायारधरो. २द ब तारिसा य तमो. ३द ब राजाहिंतोमिवाए. ४ द ब राजी. रिदो पविसिदूण. ५ द ब रिणराजियं. ६ द ब सा रिदा णियमा. ७द ब विच्चेलायासं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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