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तिलोयपण्णत्ती
[८.५८५वजतेसुं महलजयघंटापडहकाहलादीसु' । दिवेसुं तूरेसुं ते जिणपूर्ज पकुम्वति ॥ ५८५ भिंगारकलसदप्पणछत्तत्तयचमरपहुदिदग्वेहिं । पूजं कादूण तदो जलगंधादीहि अचंति ।। ५८६ तत्तो हरिसेण सुरा णाणाविहणाडयाई दिव्वाई । बहुरसभावजुदाई णरुचंति विचित्तभंगीहि ॥ ५४७ सम्माइट्ठी देवा पूजा कुवंति जिगवराग सदा । कम्मक्खवणणिमित्तं गिभरभत्तीए भरिदमणा ॥ ५८८ मिच्छाइट्ठी देवा णिचं अचंति जिगवरप्पडिमा । कुलदेवदाओ इअ किर मणंता अण्णवोहणवसेणं ॥ ५८९ इय पूजं कादूर्ण पासादेसुं णिएसु गंतूणं । सिंहासणाहिरूढा सेविजते सुरेहिं देविंदा ।। ५९० बहुविहविगुब्वगाहिं लावण्णविलाससोहमागाहिं । रदिकरणकोविदाहिं वरच्छराहिं रमंति समं ॥ ५९१ वीणावेणुझुगीओं सतसरेदि विभूसिदं गीदं । ललियाई णश्चगाई सुगंति पेति सयल पुरा ॥ ५९२
मर्दल, जयघंटा, पटह और काहल आदिक दिव्य वादिनोंके बजते रहते वे देव जिनपूजाको करते हैं ॥ ५८५ ॥
उक्त देव भृगार, कलश, दर्पण, तीन छत्र और चामरादि द्रव्योंसे पूजा करके पश्चात् जल-गन्धादिकसे अर्चन करते हैं ॥ ५८६ ॥
तत्पश्चात् हर्षसे देव विचित्र शैलियोंसे बहुत रस व भावोंसे युक्त दिव्य नाना प्रकारके नाटकोंको करते हैं ॥ ५८७ ॥ ____सम्यग्दृष्टि देव कर्मक्षयके निमित्त सदा मनमें अतिशय भक्तिसे सहित होकर जिनेन्द्रोंकी पूजा करते हैं ॥ ५८८॥
मिथ्यादृष्टि देव अन्य देवोंके संबोधनसे ये कुलदेवता हैं ' ऐसा मानकर नित्य जिनेन्द्रप्रतिमाओंकी पूजा करते हैं ॥ ५८९ ॥
इस प्रकार पूजा करके और अपने प्रासादोंमें जाकर वे देवेन्द्र सिंहासनपर आरूद होकर देवों द्वारा सेवे जाते हैं ॥ ५९० ॥
उक्त इन्द्र बहुत प्रकारकी विक्रियासे सहित, लावण्य-विलाससे शोभायमान और रतिकरनेमें चतुर ऐसी उत्तम अप्सराओंके साथ रमण करते हैं ॥ ५९१ ॥
___समस्त देव वीणा एवं बांसुरीकी ध्वनिको तथा सात स्वरोंसे विभूषित गीतको सुनते और विलासपूर्ण नृत्योंको देखते हैं ॥ ५९२ ॥
१९ व काहलसहिदेसं. २६ ब दाकरण'. ३द व वरणाहि. ४द ब 'मणीयो.
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