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-८.५८४] अट्ठमो महाधियारो
[८५५ जिणपूजाउज्जोगं कुणंति' केई महाविभूदीए । केई पुब्बिल्लागं देवाणं बोहणवसेणं ॥ ५७६ कादूण दहे पहाणं पविसिय अभिसेयमंडवं दिव्वं । सिंहासणाभिरूढं देवा कुव्वंति अभिसेयं ॥ ५७७ भूषणसालं पविसिय वररयणविभूमणागि दिवाणिं । गहिदूण परमहरिसंभरिदा कुवंति पत्थं ॥ ५७० तत्तो ववसायपुरं पविसिय अभिसे पदिन्यपूजाणं । जोगाई दम्बाई गेण्हिय परिवारसंजुत्ता ॥ ५७९ णच्चंतविचित्तधया वरचामरचारुछत्तसोहिल्ला । णिभरभत्तिपयट्टा वच्चंति जिशिंदभवणम्मि ॥ ५८० दट्टण जिणिंदपुरं वरमंगलतूरसद्दहलबोलं । देवा देवीसहिदा कुम्वति पदाहिणं पणदा ॥ ५८१ छत्तत्तयसिंहासणभामंडलचामरादिचारूगं । जिगपडिमाणं पुरदो जयजयसई पकुवंति ॥ ५८२ थोदूण थुदिसएहि जिगिंदपडिमाओ भत्तिभरिदमणा । एदागं अभिसेए तत्तो कुव्वंति पारंभ ।। ५८३ खीरद्धिसलिलपूरिदकंचणकलसेहिं अड सहस्सेहिं । देवा जिणाभिसेयं महाविभूदीए कुब्बति ।। ५८४
कोई देव महा विभूतिके साथ स्वयं ही जिनपूजाके उद्योगको करते हैं । और कितने ही देव पूर्वोक्त देवोंके उपदेश वश जिनपूजा करते हैं ॥ ५७६ ॥
द्रहमें स्नान करके दिव्य अभिषेकमंडपमें प्रविष्ट हो सिंहासनपर आरूढ़ हुए उस नव जात देवका अन्य देव अभिषेक करते हैं ॥ ५७७ ॥
भूषणशालामें प्रवेश कर और दिव्य उत्तम रत्नभूषणों को लेकर उत्कृष्ट हर्षसे परिपूर्ण हो वेषभूषा करते हैं ॥ ५७८ ॥
तत्पश्चात् वे देव व्यवसायपुरमें प्रवेशकर अभिषेक और दिव्य पूजाके योग्य द्रव्योंको प्रहणकर परिवारसे संयुक्त, नाचती हुई विचित्र धजाओंसे सहित, उत्तम चंवर व सुन्दर छत्रसे शोभायमान तथा अतिशय भक्ति से प्रवृत्त हो जिनेन्द्रभवनमें जाते हैं ॥ ५७१-५८० ॥
देवियोंसे सहित वे देव उत्तम मंगलवादित्रोंके शब्दसे मुखरित जिनेन्द्रपुरको देखकर नम्र हो प्रदक्षिणा करते हैं ॥ ५८१ ॥
पुनः वे देव तीन छत्र, सिंहासन, भामण्डल और चामरादिसे सुन्दर जिनप्रतिमाओंके आगे जय जय शब्दको करते हैं ॥ ५८२ ॥
उक्त देव भक्तियुक्त मनसे सहित होकर सैकड़ों स्तुतियोंके द्वारा जिनेन्द्रप्रतिमाओंकी स्तुति करके पश्चात् उनके अभिषेकका प्रारंभ करते हैं ॥ ५८३ ॥
उक्त देव क्षीरसमुद्रके जलसे पूर्ण एक हजार आठ सुवर्णकलशोंके द्वारा महा विभूतिके साथ जिनाभिषेक करते हैं ॥ ५८४ ॥
१ष कुव्वंति २द ब कुन्जेति.
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