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त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना
प्रमाण एक हजार श्लोक जितना बढ़ा हुआ है, और उससे यह साफ जाना जाता है कि मूलमें उतना अंश पीछे प्रक्षिप्त हुआ है । "
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इस ऊहापोहका तात्पर्य यह है कि ' तिले|यपण्णत्ति सूत्र' की रचना सर्वनन्दिकृत लोकविभागके पश्चात् तथा वीरसेनकृत धवलासे पूर्व, अर्थात् शक ३८० और ७३८ के बीच हुई अनुमान की जा सकती है । इस रचना में परिवर्धन और संस्कार होकर ग्रंथका वर्तमान रूप धमलाकी रचनासे पश्चात् किसी समय उत्पन्न हुआ होगा । किन्तु पं. फूलचन्द्रजीने जो यह कल्पना की है कि वर्तमान तिलयपत्ति कर्ता वीरसेन के शिष्य जिनसेन हो सकते हैं, इसके लिये कोई समुचित साधक-बाधक प्रमाण उपलब्ध नहीं है ।
५ ग्रंथका विषय- परिचय
प्रस्तुत ग्रंथ १ सामान्यलोक २ नारकलोक ३ भावनलोक ४ नरलोक ५ तिर्यग्लोक व्यन्तरलोक ७ ज्योतिर्लोक ८ कल्पवासिलोक और ९ सिद्धलोक इन नौ महाधिकारों में विभक्त है । इसमें जैन भूगोल और खगोलका तो मुख्यता से विवरण है ही, पर साथ ही वह प्रसंगवश जैन सिद्धान्त, पुराण एवं इतिहासादि अन्य विषयोंपर भी पर्याप्त प्रकाश डालता है । यहाँ हम पाठकोको उसके विषयका दिग्दर्शन अधिकारक्रमसे करानेका प्रयत्न करेंगे ।
१ सामान्यलोक - महाधिकार में २८३ पद्य और ३ गद्य क्रमशः पंच परम गुरुओंको नमस्कार कर त्रिलोकप्रज्ञप्तिके कहने की ६-८० में मंगल, कारण, हेतु, शास्त्रका प्रमाण, नाम और कर्ताकी है । यह प्रकरण श्री वीरसेन -स्वामिकृत षट्खण्ड/ गमकी धवला टीका ( पु. १, पृ. ८-७१ ) से बहुत अधिक मिलता-जुलता है । गाथा ८३ में ज्ञानको प्रमाण, ज्ञाताके अभिप्रायको नय और जीवादि पदार्थों के संव्यवहार के उपायको निक्षेप कहा है । उक्त तीनोंके ठीक ऐसे ही लक्षण अकलंक देवकृत लघीयस्त्रयमें भी पाये जाते हैं ।
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गा. ९३-९४ में पल्योपम, सागरोपम, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घर्नागुल, जगश्रेणि, लोकप्रतर और लोक इस प्रकार उपमा-मानके आठ भेदों को गिनाकर यह बतलाया है कि व्यवहारपल्य से संख्या, उद्धारपल्यसे द्वीप समुद्र और अद्धापल्यसे कर्मस्थिति जानी जाती है । गा. ९५-१०१ में परमाणुका स्वरूप अनेक प्रकारसे बतलाया है ।
आगे कहा गया है कि अनन्तानन्त परमाणुओं का उवसन्नासन्न स्कन्ध, आठ उबसनासन्नोंका सन्नासन्न, आठ सन्नासन्नों का त्रुटिरेणु, आठ त्रुटिरेणुओं का त्रसरेणु, आठ त्रसरेणुओं
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भाग हैं । प्रथम ५ गाथाओं में प्रतिज्ञा की गई है । गाथा विस्तृत प्ररूपणा की गई
१ ज्ञानं प्रमाणमात्मादेरुपायो न्यास हृभ्यते । नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः ॥ लघीयस्त्रय ६-२,
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