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________________ ग्रंथका विषयपरिचय (२१) को रथरेणु, आठ रथरेणुओंका उत्तमभोगभूमिजबालाय, इसी प्रकार उत्तरोत्तर आठ आठ गुणित म. भो. बालान, ज. भो. बालाग्र, कर्मभूमिजबालाग्र, लीख, जूं, जौ और उत्सेधांगुल होता है। पांच सौ उत्सेधांगुलोंका एक प्रमाणांगुल होता है । भरत व ऐरावत क्षेत्रमें भिन्न भिन्न कालमें होनेवाले मनुष्यों का अंगुल आत्मांगुल कहा जाता है । इनमें उत्सेधांगुलसे नर-नारकादिके शरीरकी ऊंचाई और चतुर्निकाय देवोंके भवन व नगरादिका प्रमाण जाना जाता है । द्वीप-समुद्र, शैल, वेदी, नदी, कुण्ड, जगती एवं क्षेत्रोंके विस्तारादिका प्रमाण प्रमाणांगुलसे ज्ञात होता है । भृगार, कलश, दर्पण, भेरी, हल, मूसल, सिंहासन एवं मनुष्योंके निवासस्थान व नगरादि तथा उद्यान, इत्यादिके विस्तारादिका प्रमाण आत्मांगुलसे बतलाया जाता है। - इसके आगे योजनका प्रमाण निम्न प्रकार बतलाया है-६ अंगुलोंका पाद, २ पादोंका वितस्ति, २ त्रितस्तियोंका हाथ, २ हाथका रिक्कु, २ रिक्कुओंका धनुष, २००० धनुषका कोश, १ कोशका योजन । अनादि-निधन व छह द्रव्योंसे व्याप्त लोकको अधः, ऊर्ध्व एवं तियक, इन तीन लोकोंमें विभक्त कर उनका आकार-प्रकार, विस्तार, क्षेत्रफल व घनफल आदिके द्वारा इसमें विस्तृत वर्णन किया गया है। गा. २१५-२६७ तक उपर्युक्त तीन लोकोंमेंसे प्रत्येकके सामान्य, दो चतुरस्र (ऊर्ध्वायत और तिर्यगायत ), यव, मुरज, यवमध्य, मन्दर, दूष्य और गिरिकटक, ये आठ आठ भेद करके उनका पृथक् पृथक् घनफल निकालकर बतलाया गया है। गा. २६८-२८१ में तीन पातवलयोंका आकार और भिन्न भिन्न स्थानों में उनकी मुटाईका प्रमाण बतलाया गया है । अन्तमें तीन गद्यभाग हैं। उनमें प्रथम गद्यभागद्वारा लोकके पर्यन्तभागोंमें स्थित उन वातवलयोंका क्षेत्रप्रमाण निकाला गया है । द्वितीय गवभाग द्वारा आठ पृथिवियों के नीचे स्थित वातक्षेत्रोंका घनफल निकाला गया है । तृतीय गद्यभागमें आठ पृथिवियोंका घनफल बतलाया है । अन्तमें कहा है कि वातरुद्ध क्षेत्र और आठ पृथिवियोंके घनफलको सम्मिलित कर उसे सम्पूर्ण लोकांसे निकाल देनेपर शुद्ध आकाशका प्रमाण शेष रहता है। २ नारकलोक-महाधिकारमें ३६७ पच है । प्रथम ५ गाथाओंमें मंगलपूर्वक आगे कहे जानेवाले १५ अन्तराधिकारोंकी सूचना की गई है । गा. ६-७ में एक राजु लंबी-चौड़ी और कुछ (३२१६२२०१३ धनुष) कम १३ राजु ऊंची त्रसनालीका निर्देश किया है । गा. ७-८ में १ यह गधभाग ष. खं. पु. ४ पृ. ५१ पर ज्योंका त्यों पाया जाता है। २ यह गथभाग प. खं. पु. ५ पृ.८८ पर प्रायः ज्योंका त्यों पाया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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