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________________ मैका रचनाकाल (१९) प्रकृितको पद्य संस्कृत छंद में व संस्कृत छंद प्राकृत में सरलता से नहीं बैठता । इसी कारण ऐसे उदाहरण ववलासे दिखाना कठिन है, जहां टीकाकारने प्राचीन संस्कृत या प्राकृत पद्यको बदलकर प्राकृत व संस्कृत पथमें उद्घृत किया हो । अतः सीधा अनुमान तो यही होता है कि धवलाकारके सन्मुख तिलोयपष्णत्ति सूत्रमें वे गाथाएं नहीं थी व उन्होंने वह एक श्लोक लघीयस्त्रय से और दूसरा कहीं अन्यत्र से उद्धृत किया है । ऐसी परिस्थिति में होता है कि वर्तमान तिलोयपत्ति में वे गाथाएं धवला में संगृहीत श्लोकोपर से किन्तु इससे अधिक निर्णय रूपसे अभी कुछ नहीं कहा जा सकता | सन्देह तो यही लिखी गई हो । ( ४ ) फूलचन्द्रजी शास्त्रीका चौथा तर्क है कि धवला, द्रव्यप्रमाण, पृ. ३६ पर जो तिलोयपण्णत्तिका 'दुगुण-दुगुणो दुवग्गो' आदि गाथांश उद्धृत किया गया है वह वर्तमान तिलोयपण्णत्ति में नहीं पाया जाता । इस पर पं. जुगल किशोरजीका यह कहना है कि जितनी प्रतियां अभी तक देखी गई हैं उनमें उक्त गाथांश न होनेसे यह नतीजा नहीं निकाला जा सकता कि वह अन्य अज्ञात प्रतियोंमें भी नहीं है। दूसरे, तिलोयपण्णत्ति जैसे बड़े ग्रंथ में लेखकों के प्रमाद से दो चार गांथाओंका छूट जाना कोई बड़ी बात नहीं है । इस प्रकार यह बात तो सिद्ध होती ही है कि वर्तमान तिलोयपणत्ति धवलाकारके सन्मुख उपस्थित रूपमें नहीं है, उसमें कमी-वेशी हुई है । (५) फूलचन्द्रजीका अन्तिम प्रमाण यह है कि तिलोयपण्णत्तिका बहुतसा गद्यांश धवलान्तर्गत पाठसे मिलता-जुलता है। यहां तक कि स्पर्शनानुयोगद्वार (पृ. १५७ ) में जो तिलोयपण्णत्ति सूत्र' का उल्लख दिया गया है वह भी वर्तमान तिलोयपणत्ति ( पृष्ठ ७६६ ) में पाया जाता है । अन्तर केवल इतना है कि धवलामें जहां "एसा परिक्खाविदी....अम्छेदि परुविदा " रूप वाक्यरचना है, वहां तिलोयपण्णत्त पाठ है " एसा.... परिक्खाविशे एसा पण परुविदा । इससे स्पष्ट है कि यह पाठ घवलासे लिया गया है, क्योंकि ति. प. में ही तिलोयपण्णत्तिका प्रमाण नहीं दिया जा सकना । और धवलामें ' अम्छेदि ' पद द्वारा जो ग्रंथकर्तीने वैयक्तिक उल्लेख किया है उसे दूर करने के लिये उसके स्थानपर एसा परूवणा ' पद रखा गया है । वह वाक्यरचना ही बिगड़कर अशुद्ध हो गई है । ;" " " 6 पं जुगलकिशोरजीने इस गद्यभागको पीछे जोड़ा गया स्वीकार कर लिया है । यही नहीं, उन्होंने कुछ और भी गद्यांश जैसे 'एतो दाण सपरिवाराणमाणयणविहाणं - अन्तरस्सामो ', ' एदम्हादो चैव सुतादो' तथा तदो ण एथ इदमित्थमेत्रे ति.... तं चेदं ' तिलोयपण्णसिमें प्रक्षिप्त स्वीकार किये हैं। उन्होंने यह भी सूचना की है कि "तिलोयपण्णत्तिका परिमाण ग्रंथ आठ हजार श्लोक प्रमाण बतलाया गया है जब कि वर्तमान तिलोयपण्णत्तिका Jain Education International .... For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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