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________________ त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना यहीसे लिया गया है । इसार पं. जुगलकिशोरजीका यह मत सर्वथा उचित है कि ऐसे सादृश्य मात्रपरसे विना किसी प्रबल प्रमाणके उसका धवलासे लिया जाना सिद्ध नहीं होता । उक्त प्रकारका विवरण जिनभद्र के विशेषावश्यक भाष्य ( ७वीं शताब्दि ) में भी मिलता है। यद्यपि ति. प. और धवलाके मंगलवर्णनमें इतना अधिक साम्य है कि एक दूसरे की छायाका सन्देह होना अनिवार्य है, यथार्थतः धवलाकी सहायतासे ही ति. प. के मंगलविषयक पाठका संशोधन संभव हुआ है, तथापि ऐसे परम्परागत विषयका इतने परसे ही निश्चयतः यह कहना कठिन है कि किसने किससे लिया है। (३) पं. फूलचन्द्रजीकी तीसरी युक्ति यह है कि 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' इत्यादि श्लोक भट्टाकलंकके लघीयस्त्रयमें आया है । यही श्लोक कुछ पाठभेद सहित धवलामें भी है जहां उससे पूर्व प्रमाण-नय-निक्षपैः' आदि एक और भी श्लोक पाया जाता है जो लघीयस्त्रय में नहीं है । ये दोनों ही श्लोक प्राकृत-रूपान्तरसे तिलोयपण्णत्ति (१, ८२-८३ ) में भी पाये जाते हैं और संभवतः धवलापरसे ही लिये गये हैं। पं. जुगल केशोरजीका मत है कि " दोनों गाथाओं और श्लोकोंकी तुलना करनेसे तो ऐसा मालूम होता है कि दोनों श्लोक उक्त गाथाओंपरसे अनुवाद रूपमें निर्मित हुये हैं, भले ही यह अनुबाद स्वयं धवलाकारके द्वारा निर्मित हुआ हो या उससे पहले किसी दूसरे के द्वारा ।" तिले।यपण्णत्तिसे सीधे प्रकृत पाठको उद्धृत न कर संस्कृत'नुवादमें प्रस्तुत करने का कारण जुगलकिशोरजीने यह बतलाया है कि " यह सब धवलाकार वीरसेन की रुचिकी बात है, वे अनेक प्राकृत वा यों को संस्कृतमें और संस्कृत वादयों को प्राकृत अनुगदित करके रखने हुये भी देखे जाते हैं।" _____ यदि ये गाथाएं धवलाकारके सन्मुख उपस्थित तिगेयपणत्ति सूत्र ' में थीं तो कोई कारण नहीं कि वे उसे उसी रूपमें ही उद्धृत न कर उनका संस्कृत रूपान्तर करके लिखते । और जब उनसे पूर्व रचित लधीयस्त्रयमें वह एक संस्कृत श्लोक पाया जाता है, तब उनके संस्कृत रूपान्तर करनेकी बात सर्वथा निराधार हो जाती है । साथका जो संस्कृत श्लोक लघीयस्त्रयमें नहीं पाया जाता उसका अनुमान तो यही किया जा सकता है कि वह भी धवलाकारने विना अनुवादके जैसा कहीं उन्हें प्राप्त हुआ वैसा ही प्रसंगोपयोगी जान उधृत कर दिया है । यह बात सच है कि धवलाकार कहीं संस्कृतके वाक्योंको प्राकृतमें और कहीं प्राकृतके वाक्योंको संस्कृतमें प्रस्तुत करते पाये जाते हैं। इसका कारण यह है कि जब संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओंका विद्वान् स्मृतिके सहारे किसी विषयका वर्णन करता है तब वह यह भूल जा सकता है कि मूल वाक्य किस ग्रंथमें संस्कृतमें हैं या प्राकृतमें । किन्तु जब पद्य ही उद्धृत करना है तब यह अनुवाद कार्य अनायास नहीं हो सकता, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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