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________________ ग्रंथका रचनाकाल . उल्लेखनुसार जंबूदीवपण्णत्तिकी रचना पारियात्र देशके बारा नगरमें शक्तिकुमार राजाके राज्यकालमें हुई थी। गुहिल वंशीय राजा शक्तिकुमारका एक शिलालेख वैशाख सुदी १ वि. सं. १०३४ का आहाड़में ( उदयपुरके समीप ) मिला है । उसीके समयके और दो लेख जैन मन्दिरों में भी मिले हैं । किन्तु उनमें संवत्के अंश जाते रहे हैं। पमनन्दिने संभवतः अपनी ग्रंथरचना इसी राजाके समयमें की थी, अतः वह रचना ११वीं शताब्दिकी हो सकती है ( जैन साहित्य और इतिहास पृ ५७१ )। इस विषयमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि धवलाकारके सन्मुख · तिलोयपण्णति सूत्र' उपस्थित था और फिर भी उन्होंने केवल दो प्राचीन गाथाओंके आधारपर अपने युक्तिबलसे लोकको आयतचतुरस्राकार सिद्ध करनेका स्पष्ट उल्लेख किया है। यदि उनके सन्मुख उपस्थित तिलोयपण्णत्ति सूत्रमें वह मान्यता स्पष्ट होती, जैसी वर्तमान तिलोयपण्णत्तिमें है, तो न तो उन्हें उक्त विषयकी उतने विस्तारसे विवेचना करनेकी आवश्यकता पड़ती, जैसी जीवट्ठाण क्षेत्रानुगमके पृ. १० से २२ तक की गई है, और न उन्हें स्पर्शनानुगमके प. १५७ पर यह कहनेका साहस होता कि रज्जुच्छेदोंके प्रमाणकी परीक्षाविधि उन्होंने उसी प्रकार युक्तिबलसे स्थापित की है जिस प्रकार असंख्येयावलि प्रमाण अन्तर्मुहूर्तकी व आयतचतुरन लोककी । रज्जुच्छेदोंके सम्बन्धमें उन्हें अपने मतानुकूल तिलोयपण्णत्ति सूत्र प्राप्त हो गया था, अतएव उन्होंने उसका स्पष्टोल्लेख भी कर दिया है । तब कोई कारण नहीं कि यदि उन्हें उसी सूत्र ग्रंथमें आयतचतुरस्रक लोकका भी कोई संकेत या आधार मिलता तो वे उसका प्रमाण न देते, क्योंकि उस प्रमाणकी तो उन्हें बड़ी ही आवश्यकता थी, जिसकी पूर्ति उन्होंने केवल यह कहकर की है कि ण च सत्तरज्जुबाहल्लं करणाणिओगसुत्तविरुद्धं, तस्स तत्थ विधिप्पडिसेधाभावादो' (धवला भाग ४, पृ. २२) अर्थात् लोकके उत्तर दक्षिण भागमें सर्वत्र सात राजुका बाहल्य करणानुयोग सूत्रके विरुद्ध नहीं है, क्योंकि सूत्रमें न तो उसका विधान है और न निषेध । इससे बिलकुल स्पष्ट है कि धवलाकारको ज्ञात साहित्यमें उक्त मान्यताका सर्वथा अभाव था । आज भी वीरसेनसे पूर्व निश्चितकालीन एक भी उल्लेख उस मान्यताका हमें प्राप्त नहीं है। और इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं रहता कि वीरसेनके सन्मुख उपस्थित 'तिलोयपण्यत्ति सूत्र' में आयतचतुरस्राकार लोकका समर्थन करनेवाला कोई उल्लेख नहीं था। (२) पं. फूलचन्द्र जीकी दूसरी युक्ति यह है कि ति. प. के प्रथम अधिकारके आदिमें जो मंगल आदि छह अधिकारोंका वर्णन है वह ग्रंथकारके कथनानुसार विविध ग्रंथयुक्तियों द्वारा किया गया है और वह धवला टीकाके आदिके वर्णनसे मिलता है, अतः वह संभवतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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