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. त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना पण्णत्तिकारने महावीरके पश्चात् शकके राजा होने तक कितना काल व्यतीत हुँआ इस विषयपर भिन्न भिन्न मतोंका उल्लेख किया है। इन अनेक मतभेदोंके उल्लेखसे ही सुस्पष्ट है कि या तो ग्रंथकार शकराजासे बहुत पीछे हुए, या इन मतभेदोंको पीछेके विद्वान् लिपिकारोंने विविध आधारोंसे समय समयपर जोड़ दिया है । इस द्वितीय विकल्पका कोई विशेष आधार नहीं है, अतः प्रथम विकल्पको ही स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि उससे कोई बड़ा विरोध उत्पन्न नहीं होता।
राजवंशोंके सम्बन्धमें तिलोयपण्णत्ति ( ४.१५०५ आदि ) में कहा गया है कि जिस दिन अवन्तीमें सुप्रसिद्ध पालक राजाका अभिषेक हुआ उसी दिन पावामें महावीर भगवान् का निर्वाण हुआ । पालकने ६० वर्ष राज्य किया । उसके पश्चात् १५५ वर्ष विजय वंशका, फिर १० वर्ष मुरुदय ( मौर्य या मुरुण्डय ) का, ३० वर्ष पुष्यमित्रका, ६० वर्ष वसुमित्र
और अग्निमित्रका, १०० वर्ष गंधर्व (गंधब्भ = गर्दभिल्ल ) का, ४० वर्ष नरवाहनका, २४२ वर्ष भत्थट्टण ( भृत्यान्ध्र ) राजाओंका, २३१ वर्ष गुप्त नरेशोंका और अन्ततः ४२ वर्ष कल्कीका राज्य रहा । कल्कोके पश्चात् उसका पुत्र राजा हुआ। इस प्रकार महावीरनिर्वाणसे कस्कीके राज्य तक १००० वर्ष हुये, जिसकी अवधि १००० - ५२७ = ४७३ ईस्वी होती है । गुणभद्रकृत उत्तरपुराण के अनुसार (७६-३९४ ) कस्कीकी उत्पत्ति दुषमा कालके एक हजार वर्ष व्यतीत होनेपर हुई थी और उसकी आयु ७० वर्षकी थी व उसका राज्यकाल ४० वर्षका। दुषमा कालका प्रारम्भ तिलोवपत्तिके अनुसार महावीरनिर्वाणसे ३ वर्ष ८ माह पश्चात् हुआ। उसके अनुसार कल्कीकी मृत्यु महावीरनिर्वाणसे १००० + ३ + ७० = १०७३ वर्ष पश्चात् अर्थात् सन् १०७३ - ५२७ = ५४६ ईस्वीमें हुई । नेमिचन्द्रकृत त्रिलोकसार (गा. ८५०) के अनुसार वीरनिर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात् शक राजा हुआ और शकसे ३९४ वर्ष ७ मास पश्चात् कल्की हुआ जिसकी आयु ७० वर्षकी थी, और राज्यकाल ४० वर्षका । तदनुसार कल्कीकी मृत्यु वीरनिर्वाणसे १००० + ७० = १०७० अर्थात् १०७० - ५२७ =५४३ ईस्वामें हुई, तथा उसका राज्यकाल ५०३ से ५४३ तक रहा। प्रो० काशीनाथ बापू पाठकके मतानुसार (Gupta Era and Mihirkula: Bhand Com. Vol. Poona. 1919 page 216 ) यह कल्की हूण नरेश मिहिरकुल ही था जो चीनी यात्री सुंग युनकी यात्राके समय ईस्वी सन् ५२० में राज्य कर रहा था। यह वृत्तान्त ग्रंथमें पीछेसे जोड़ा गया हो इसके लिये कोई पर्याप्त कारण नहीं दिखाई देता। जिस प्रकारसे यह वृत्तान्त दिया गया है (देखिये गाथा ४-१५१०) उससे प्रतीत होता है कि वह सब विवरण खयं ग्रंथकारकृत ही है। इससे स्पष्ट होता है कि तिलोयपण्यत्तिकार यतिवृषभ महावीरनिर्वाणके १००० पश्चात अर्थात् सन् १७३ ईस्वीसे पूर्व नहीं हो सकते।
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