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प्रेषका रचनाकार ग्रंथों की खोज प्राचीन ग्रंथभंडारोंमें करना चाहिये, विशेषतः गुजरात और कर्नाटकमें जहां इन्हीं कुछ वर्षोंमें बड़े दुर्लभ ग्रंथोंका पता चल चुका है।
तिलोयपण्णत्तिमें जिन ग्रंथोंका उल्लेख पाया जाता है, उनमेंसे अधिकांश जैन साहित्यके आदिम स्तरके हैं । मूलाचार यद्यपि एक प्राचीन जैन ग्रंथ माना जाता है, तथापि उसके रचनाकालके सम्बन्धमें कोई निश्चय नहीं है । जब तक यह न बतलाया जा सके कि सिंहसूरिकृत लोकविभागसे पूर्व भी उसी नामका कोई ग्रंथ या, तब तक यही मानना उचित होगा कि तिलोयपप्णत्तिमें इसी लोकविभागका उल्लेख है । अतएव तिलोयपण्णत्ति अपने वर्तमान रूपमें सर्वनन्दिकृत प्राकृत लोकविभागसे अर्थात् ४५८ ईस्वीसे पश्चात् कालकी रचना है।।
इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार (श्लोक १६०-१६१) के अनुसार कुन्दकुन्दपुरके पद्मनन्दि ( अर्थात् कुन्दकुन्द ) ने अपने गुरूओंसे सिद्धांतका अध्ययन किया और षट्खण्डागमके तीन खण्डोंपर परिकर्म नामकी टीका लिखी । जब तक धवला और जयधवला टीकार्य प्रकाशमें नहीं आई थीं, तब तक परिकर्म नामकी किसी रचनाका अस्तित्व सन्देहास्पद ही था। किन्तु उक्त ग्रंथों के प्रकाशित होनेसे परिकम्म (परिकर्म ) नामक रचना-विशेषकी स्थितिमें तथा उसके वीरसेन व जिनसेनके सन्मुख उपस्थित होने में कोई संदेह नहीं रहता (धवला, माग १ प्रस्तावना पृ. ४६) । परिकर्मके जितने उल्लेख अभी तक हमारे सन्मुख आये हैं वे सभी प्रायः गणितसे सम्बन्ध रखते हैं । इससे स्वभावतः यह सन्देह होता है कि वह कोई गणित विषयका ग्रंथ रहा है । कुन्दकुन्दाचार्यके उपलब्ध ग्रंथोंको देखकर यह कहना कठिन है कि वे गणितज्ञ थे । तथापि इस सम्बन्धके जब तक और भी साधक-बाधक प्रमाण हमारें सन्मुख न आजाय, तब तक इन्द्रनन्दिके कथनको मानकर चलना ही उचित होगा। तदनुसार तिलोयपण्णत्तिके परिकर्म सम्बन्धी उल्लेखोंपरसे उसके कर्ता यतिवृषभ कुन्दकुन्दसे पश्चात्कालीन प्रतीत होते हैं और कुन्दकुन्दका काल ईस्वीकी प्रारम्भिक शताब्दियोंमें ही पड़ता है (प्रवचनसारकी प्रस्तावना, बम्बई १९३५)।
१. तिलोयपण्णत्तिमें भगवान् महावीरके पश्चात्कालीन इतिहासको बहुतसी सामग्री पाई जाती है। एक तो श्रुतपरम्परासे सम्बन्ध रखती है और दूसरी राजवंशोंसे ।
___ महावीर भगवान् के निर्वाणसे पश्चात् तीन केवली ६२ वर्षोंमें, पांच श्रुत-केवली १०० वर्षोंमें, ग्यारह दशपूर्वी १८३ वर्षोंमें, पांच एकादशांगधारी २२० वर्षोंमें और चार वाचारांगधारी ११८ वर्षोंमें हुये । इस प्रकार महावीरनिर्वाणसे ६८३ वर्ष तक, अर्थात् ६८३ -५२७ = १५६ ईस्वी तक अंगज्ञानकी परम्परा चली। प्रसंगवश यह भी कहा गया है कि मुनिधर्म स्वीकार करनेवालोंमें मुकुटधारी अन्तिम राजा चन्द्रगुप्त ही था। तिलोय
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