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________________ ग्रंथका रचनाकाल उक्त प्रमाणोंके प्रकाशमें यतिवृषभका काल गुणधर, आर्यमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द और सर्वनन्दि (४५८ ईस्वी ) से पश्चात्का सिद्ध होता है । वे संभवतः कल्कीसे पश्चात् (४७३ ईखो ) शीघ्र हुये होंगे, क्योंकि उनके द्वारा प्रमुख राजाओंमें कल्कीका ही अन्तिम उल्लेख है । तथा दूसरी सीमाके सम्बन्धमें निश्चयतः तो इतना ही कहा जा सकता है कि वे वीरसेन ( ८१६ ईखी ) से, और संभवतः जिनभद्र क्षमाश्रमण (६०९ ईस्वी) से भी पूर्व हुये । अतः यतिवृषभ और उनकी तिलोयाण्णत्तिका काल ४७३ और ६०९ ईस्वीके मध्य माना जा सकता है। यतिवृषभ और उनकी तिले.यपग्णत्तिके उक्त कालनिर्णय एवं अन्य आचार्योंके उक्त काल-क्रमका इस विषयके कुछ लेखकोंके मतोंसे विरोध आता है जिसका यहां विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। ___ कुछ विद्वानोंका मत है कि कुन्दकुन्दका काल उतना प्राचीन नहीं है, क्योंकि एक तो उन्होंने 'लोकविभाग ' का उल्लेख किया है जिसका अभिप्राय संभवतः सर्वनन्दिकृत प्राकृत लोकविभागसे है । और दूसरे उन्होंने ' विष्णु 'शिव' आदिका भी उल्लेख किया है। नियमसार गाथा १७ में स्पष्टतः 'लोयविभायेसु ' पद बहुवचनान्त पाया जाता है, जिससे अनुमान किया जा सकता है कि उसका अभिप्राय किसी एक ग्रंथविशेषसे न होकर परम्परागत लोकविभागविषयक उपदेशोंसे है । इस सम्बन्धमें यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि संस्कृत लोकविभागके प्रथम श्लोकमें ही ' जिनश्वरें। ' का विशेषण · लोकालोकविभागज्ञ' दिया गया है जिससे जान पड़ता है कि लोकविभागका अर्थ ग्रंथविशेषके अतिरिक्त सामान्यतः लोकके विभागोंका भी लिया जाता रहा है। विष्णु कोई इतना आधुनिक देवता नहीं है जितना मुनि कल्याणविजयजी अनुमान करना चाहते हैं (श्रमण भगवान् महावीर पृ. ३०३)। विष्णु तो बहुत प्राचीन देवता है जिसका उल्लेख उनके गरुडसहित ( पक्खीसु वा गरुडे वेणुदेवो, १, ६-२१) आगमके एक प्राचीनतम ग्रंथ सूयगडमें भी पाया जाता है । उसी ग्रंथमें अन्यत्र ईश्वर व स्वयंभूका भी उल्लेख आया है जिसका अर्थ टीकाकारने 'विष्णु' किया है। मुनिजीके अन्य तर्के इतने हलके हैं कि उनके यहां खण्डन करनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । इस प्रकार कोई एक भी ऐसा गंभीर प्रमाण प्रस्तुत नहीं है जिसके बलसे हमें कुन्दकुन्दको यतिवृषभसे पश्चात्कालीन मानना पड़े। 4. फूलचन्द्र शास्त्रीने तिलोयपण्णत्तिके कर्ता व समयका विस्तारसे विवेचन किया है (जैन सिद्धांत भास्कर, भाग ११, किरण १, पृ. ६५-८२ ) और उसका खण्डन पं. जुगल. किशोरजी मुख्तारने किया है (हस्तलिखित लेख अप्रकाशित)। इस वाद-विवादसे प्रस्तुत विषय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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