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________________ ७६६] तिलोयपण्णत्ती [७. ६१३सुत्तादो । एसा तपाउग्गसंखेज्जरूवाहियजंबूदीवछेदणयसहिददीव-समुद्दरूवमेत्तरज्जुच्छेदणयपमाणपरिक्खाविहीण अण्णाइरियउवदेसपरंपराणुसारिणी', केवलं तु तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुसारिणी', जोदिसियदेवभागहारपदुप्पाइयसुत्तावलंबिजुत्तिबलेण पयदगच्छसाधणहमेसा परूवणा परूविदा। तदो ण एत्थ इदमित्थमेवत्ति एयंतपरिग्गहेण असग्गाहो कायवो, परमगुरुपरंपरागउवएसस्स जुत्तिबलेण विहडावेदुमसक्कियत्तादो, भदिदिएसु पदत्थेसु छदुमत्थवियप्पाणमविसंवादणियमाभावादो। तम्हा पुब्वाइरियवक्खाणापरिचाएण एसा वि दिसा' हेदुवादाणुसारिविउप्पणसिस्साणुग्गहण-अवुप्पण्णजणउम्पायणटुं च दरिसेदव्वा । तदो ण एत्थ संपदायविरोधी कायव्वो त्ति । एदेण विहाणेण परूविदगच्छं विरलिय रूवं पडि चत्तारि रूवाणि दादूण अण्णोण. भत्थे कदे१२ कित्तिया जादा इदि उत्ते संखेज्जरूवगुणिदजोयणलक्खस्स वग्गं पुणो सत्तरूवसदीए गणिय चउसट्रिरूववग्गेहि पुणो वि गुणिय जगपदरे भागे हिदे तत्थ लद्वमेत्तं होदि । पुणो एदं दुटाणे १० तत्प्रायोग्य असंख्यात रूपाधिक जम्बूद्वीपके अर्थच्छेदोंसे सहित द्वीप-समुद्रसंख्या मात्र राजुके अर्धच्छेदोंके प्रमाणकी परीक्षाविधि अन्य आचार्योंके उपदेशकी परंपराका अनुसरण करनेवाली नहीं है, यह तो केवल त्रिलोकप्रज्ञप्तिके सूत्रका अनुसरण करनेवाली है। ज्योतिषी देवोंके भागहारका प्रत्युत्पादन करनेवाले सूत्रका आलम्बन करनेवाली युक्तिके बलसे प्रकृत गच्छको सिद्ध करनेके लिये यह प्ररूपणा प्ररूपित की गयी है । अतएव यहां ' यह ऐसा ही है। इस प्रकारके एकान्तको ग्रहण करके कदाग्रह नहीं करना चाहिये, क्योंकि परमगुरुओंकी परम्परासे आये हुए उपदेशको इस प्रकार युक्तिके बलसे विघटित नहीं किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त अतीन्द्रिय पदार्थोके विषयमें अल्पज्ञोंके द्वारा किये गये विकल्पोंके विरोध न होनेका कोई नियम भी नहीं है। इसलिये पूर्वाचार्योंके व्याख्यानका परित्याग न कर हेतुवादका अनुसरण करनेवाले व्युत्पन्न शिष्योंके अनुग्रहण और अव्युत्पन्न जनोंके व्युत्पादनके लिये इस दिशाका दिखलाना योग्य ही है, अत एव यहां संप्रदाय विरोधकी भी आशंका नहीं करना चाहिये । _इस उपर्युक्त विधान के अनुसार पूर्वोक्त गच्छका विरलन कर एक एक रूपके प्रति चार चार रूपोंको देकर परस्पर गुणा करनेपर कितने हुए इस प्रकार पूछनेपर एक लाख योजनके वर्गको संख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर पुनः सात सौ रूपों (?) से गुणा करके पुनरपि चौंसठ रूपोंके वर्गसे गुणा करके जगप्रतरमें भाग देनेपर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण १द ब दीवत्तोदणय . २६ ब वीही. ३६ ब अण्णाइरियाउवदेसपरंपराणुसरणे. ४द व मुत्ताशुसारि. ५ द ब इदमेत्थमेवेति. ६ द ब परिग्गहो ग. ७ द ब विहदावेदु. ८ द ब तहा. ९६बक्खाणपरिच्चाएण. १० विधीसा. ११ दब संपदाए विरोधो. १२ दब अण्णोष्णं मंडेक्कदे. १३६ गणिदे जोयण. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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