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________________ -७.६१३) सत्तमो महाधियारो [७६५ चउसविरूवाणिं गुणिज्जमाणतणेण ठवेदव्वाणि । एवं कदे रिणरासिस्स पमाणं उच्चदे- एगरूवमादि कादूण गच्छं पडि दुगुण-दुगुणकमेण जाव सयंभूरमणसमुद्दो ति गदरिणरासी होदि । संपहि एवं ठिदसंकलणाणमाणयणं उच्चदि-छरूवाहियजंबूदीवच्छेदणएहि परिहीणरज्जुच्छेदणामो गच्छं काऊण जदि संकलणा माणिज्जदि तो जोदिसियजीवरासी ग उप्पज्जदि, जगपदरस्स बेछप्पण्णंगुल-[सद-] वग्गभागहाराणुववत्तीदो । तेण रस्जुच्छेदणासु अण्णसिं पितामोग्गाण संखेजरूवाणं हाणि काऊण गच्छा ठवेयग्या । - ५ एवं कदे तदियसमुद्दो मादी न होदि त्ति णासंकणिज्ज, सो चेव आदी होदि, सयंभूरमणसमुदस्स परभागसमुप्पण्णरज्जुच्छेदणयसलागाणमवणयणकरणादो । सयंभूरमणसमुदस्स परदो रज्जुच्छेदणया अस्थि त्ति कुदो म्वदे । बेछप्पण्णंगुलसदवग्गसुत्तादो । 'जेत्तियाणि दीव-सायररूवाणि जंबूदीवच्छेदणाणि छरूवाहियाणि तेत्तियाणि रज्जुस्छेदणाणि' ति परियम्मेणं एवं वक्खाणं किं ग विरुज्झदे । ण, एदेण सह विरुज्झदि, किंतु सुत्तेण सहण विरुज्झदि । तेणेदस्त वक्खाणस्म गहणं कायन्वं,ण परियम्मसुत्तस्स; सुत्तविरुद्धत्तादो।" ण सुत्तविरुद्ध वक्खाणं होदि, भदिप्पसंगादो। तत्थ जोइसिया णस्थि त्ति कुदो जव्वदे। एदम्हादो चेव रखना चाहिये । ऐसा करनेपर ऋण राशिके प्रमाणको कहते हैं- एक रूपको आदि करके गच्छके प्रति ( प्रत्येक गच्छमें ) दूने दूने क्रमसे स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त ऋण राशि गई है। अब समय इस प्रकारसे स्थित संकलनोंके लानेको कहते हैं- छह रूपोंसे अधिक जम्बूद्वीपके अर्धच्छेदोंसे हीन राजुके अर्धच्छेदोंको गच्छ करके यदि संकलनको लाया जाय तो ज्योतिषी जीवराशि उत्पन्न नहीं होती है, क्योंकि जगप्रतरका दो सौ छप्पन अंगुलके वर्गप्रमाण भागहार नहीं बनता है । अत एव राजुके अर्धच्छेदोंमेंसे उसके योग्य अन्य भी संख्यात रूपोंकी . हानि करके गच्छ स्थापित करना चाहिये । ऐसा करनेपर तृतीय समुद्र आदि नहीं होता है इस प्रकारकी आशंका भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि, वह तृतीय समुद्र ही आदि होता है । इसका कारण स्वयंभूरमण समुद्रके परभागमें उत्पन्न राजुकी अर्धच्छेदशलाकाओंका अपनयन अर्थात् कम करना है । स्वयंभूरमण समुद्रके परभागमें राजुके अर्धच्छेद हैं यह कहांसे जाना जाता है ? दो सौ छप्पन अंगुलके वर्गप्रमाण भागहारके निरूपक सूत्रसे । 'जितनी द्वीपसागरोंकी संख्या और जितने जम्बूद्वीपके अर्धच्छेद हैं, छह रूपोंसे अधिक उतने ही राजुके अर्धच्छेद हैं ', इस प्रकारके परिकर्मके साथ यह व्याख्यान क्यों न विरोधको प्राप्त होगा ! इस प्रश्नका उत्तर देते हैं कि यह व्याख्यान इस परिकमसे विरोधको प्राप्त होगा किन्तु सूत्रके साथ विरोधको प्राप्त नहीं होगा। इसलिये इस व्याख्यानका ग्रहण करना चाहिये, न कि परिकर्मसूत्रका; क्योंकि वह सूत्रके विरुद्ध है और सूत्रविरुद्ध व्याख्यान अतिप्रसंग होनेसे होता नहीं है । वहां ज्योतिषी नहीं हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ! इसी सूत्रसे । यह १२ समद आदिय . २६ व सदपण्णगुलसदन्वाग'. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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