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७३२ ]
तिलोयपण्णत्ती
[ ७. ४३०
हिमपरिहिं तिगुणिय वीसहिदो लंड मेत्ततेसट्ठी । दुसदा सत्तत्तालं सहस्सया वीसहरिदत्तंसा || ४३०
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४७२६३
एवं चक्खुपासोकिखेत्तस्स होदि परिमाणं । तं एत्थं दव्वं हरिवरिससरासपट्टद्धं ॥ ४३१ पंचसहस्सा [ तह ] पणसयाणि चउत्तरी य जोयणया । बेसयतेत्तीसंस। हारो सीदीजुदा तिसया ॥ ४३२
२३३
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३८०
उवरिम्मि सिह गिरिणो एत्तियमाणेण पढममग्गठिदं । पेच्छति तवणिवित्रं भरक्खेत्तम्मि चक्कहरा ॥ ४३३
आदिम परिधिको तिगुणा करके बीसका भाग देनेवर जो सैंतालीस हजार दो सौ तिरेसठ योजन और एक योजनके बीस भागों में से सात भाग लब्ध आते हैं यही उत्कृष्ट चक्षुस्पक्षेत्रका प्रमाण होता है । इसमें से हरिवर्ष क्षेत्र के धनुः पृष्ठप्रमाणके अर्थ भागको घटाना चाहिये ॥ ४३०-४३१ ॥
५५७४
विशेषार्थ - जब श्रावण मास में ( कर्क संक्रान्तिके समय ) सूर्य अभ्यन्तर वीथीमें स्थित होता है तब अयोध्या नगरीके मध्य में अपने महलके ऊपर स्थित भरतादिक चक्रवर्ती निषध पर्वतके ऊपर उदित होते हुए सूर्यविम्बको देखते हैं । यह अयोध्या नगरी निषेध पर्वतके एक भागसे दूसरे भाग तककी अभ्यन्तर वीथीके ठीक बीचमें स्थित है । इस प्रकार जब सूर्य अपने भ्रमण द्वारा पूर्ण (३१५०८९ यो . ) अभ्यन्तरपरिधिको साठ मुहूर्तमें और निषध पर्वतके एक ओर से दूसरे ओर तककी अभ्यन्तरपरिधिको अठारह मुहूर्त में समाप्त करता है, तब वह निषध पर्वत से अयोध्या तक की परिधिको नौ मुहूर्तमें समाप्त करेगा । अत्र जब सूर्य ३१५०८९ योजनप्रमाण परिधिको साठ मुहूर्तमें समाप्त करता है, तब वह नौ मुहूर्तमें कितनी परिधिको समाप्त करेगा ? इस प्रकार त्रैराशिक करनेपर सैंतालीस हजार दो सौ त्रिरेसठ योजन और एक योजनके बीस भागो में से सात भागप्रमाण यह उत्कृष्ट चक्षुस्पर्शक्षेत्र आता है ।
उदाहरण- = अभ्यन्तरपरिधि ३१५०८९
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उत्कृष्ट चक्षुस्पर्शक्षेत्र । (देखो त्रिलोकसार गाथा ३८९) ।
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इ ४७१६३
उक्त प्रकारसे चक्षुके उत्कृष्ट विषयक्षेत्र में से हरिवर्ष के अर्ध धनुःपृष्ठको निकाल देने पर निषध
पर्वतकी उपरम पृथिवीका प्रमाण पांच हजार पांच सौ तीन सौ अस्सी भागों में से दो सौ तेतीस भाग अधिक पर्वतके ऊपर प्रथम वीथीमें स्थित सूर्यविम्बको भरतक्षेत्र के चक्रवर्ती देखते हैं ॥। ४३२-४३३॥
चौहत्तर योजन और एक योजनके आता है । इतने योजनमात्र निषध
५५७४३३ः ।
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