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(१०)
त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना समीक्षा करें और यतिवृषभ तथा उनकी तिलोयपण्णत्तिके रचनाकालकी कुछ सीमाएं निर्धारित करनेका प्रयत्न करें।
अ. १. वीरसेनस्वामीने अज्जमखुके शिष्य और नागहत्थिके अन्तेवासी यतिवृषभके न केवल आशीर्वाद की आकांक्षा प्रकट की है किन्तु उन्होंने उनके 'वृत्तिसूत्र' का भी उल्लेख किया है । तिलोयपण्णत्तिका भी निर्देश किया है, उसे सूत्रकी संज्ञा देकर सम्मानित किया है, उसकी गाथाएं भी उद्धृत की हैं जो कुछ अल्प परिवर्तनोंके साथ प्रस्तुत ग्रंथमें पाई जाती है। तथा कहीं कहीं उसके विषयको भी रूपान्तरित करके उद्धृत किया है। वीरसेनके समान टीकाकार एक पूर्वकालीन ग्रंथके विषयको अपनाते हैं और उसके अवतरण भी प्रस्तुत करते हैं, यह सर्वथा स्वाभाविक है; क्योंकि टीकाकारसे प्राचीन सूत्रोंके स्पष्टीकरणमें यही तो अपेक्षा की जाती है । वीरसेनके कालके सम्बन्धमें हमें उनकी स्वयं प्रशस्ति प्राप्त है कि उन्होंने धवला टीकाको शक सं. ७३८ (+७८) = ८१६ ईस्वीमें समाप्त किया था। अतएव यतिवृषभकृत तिलोयपण्णत्तिका काल इससे पूर्व ठहरता है ।
२. पं० महेंद्रकुमारजीने बतलाया है कि जिनभद्र क्षमाश्रमणने अपने विशेषावश्यक भाष्य (शक ५३१=६०९ ईस्वी ) में जो 'आदेशकषाय ' का उल्लेख किया है इसका अभिप्राय संभवतः जयधवलान्तर्गत चूर्णिसूत्रमें यतिवृषभकृत विवेचनसे है ।
ब. अब हम आभ्यन्तर सूचनाओंकी समीक्षा करेंगे
१. यतिवृषभने किन्हीं पूर्ववर्ती ग्रंथकर्ताओंका स्मरण नहीं किया । केवल तिलोयपण्णत्तिकी ९.६९ वी गाथाके सुधारे हुये पाठसे यह ध्वनित होता है कि वे श्लेषद्वारा अपने नामके साथ साथ गुणधराचार्यका भी नामोल्लेख कर रहे हैं। तथापि इससे हमें उनके कालनिर्णयमें अधिक सहायता नहीं मिलती।
२. तिलोयपण्णत्ती ४-१२११ में बाल चन्द्र सैद्धांतिकका नामोल्लेख पाया जाता है। अब प्रथम प्रश्न यह है कि क्या वह पद्य यतिवृषभकृत ही है। इस प्रश्नके उत्तरमें हमें कहना है 'नहीं'। उस स्थलका प्रसंग ही यह बतला रहा है कि उस पद्यका ग्रंथसे कोई आन्तरिक संबन्ध नहीं है । उससे पूर्वके पद्यमें कहा गया है कि ऋषभ, वासुपूज्य और नेमिनाथको छोड़कर शेष समस्त तीर्थकरोने कायोत्सर्ग मुद्रासे मोक्ष प्राप्त किया। इस स्थलपर कोई भी कुशल व भक्तिमान् पाठक या लिपिकार तीर्थंकरोंके स्मरण की भावनासे प्रेरित हो सकता है।
३. धवला १ पृ. १६, ३१-३३,
१. धवला ३. पृ. ३६. २. धवला १ पृ. ४०, ६३ आदि, __ ५६-५७, ६०-६२, ६३-६४ आदि ।
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