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________________ ग्रंथका रचनाकाल अतएव इसमें कोई संदेश नहीं जान पड़ता कि बालचन्द्र सैद्धांतिक यदि लिपिकार नहीं तो कोई अभ्यासशील पाठक अवश्य रहे हैं, और उन्होंने ही उस प्रसंगमें वह पद्य जोड़ दिया । सैद्धांतिककी उपाधि अनेक आचार्यों के नामों के साथ जुड़ी हुई पाई जाती है, जैसे-नेमिचन्द्र, वीरनन्दि, भाधनन्दि आदि; और वह उनकी सिद्धान्तमें निपुणताकी बोधक है। बालचन्द्र नामधारी भी अनेक आचार्य हुये हैं। अतः हमें ऐसे एक बालचन्द्रका पता लगाना चाहिये जो साहित्यमें या शिलालेखादिमें सैद्धांतिक कहे गये हों । ऐसा एक जोड़ा हुआ पद्य यह संदेह उत्पन्न करने के लिये अच्छा सूचक है कि क्या विद्वान् पाठकों और लिपिकारोंने ग्रंथमें इधर उधर अर्थविस्तारके लिये कहीं अन्यत्रसे कुछ पाठ जोड़े हैं। कुछ भी हो, किन्तु बालचन्द्र सैद्धांतिकका यह नामोल्लेख यतिवृषभके कालनिर्णयमें हमें कुछ भी सहायता नही पहुँचा सकता। . ३. तिलोयपण्णत्तिमें कुछ पूर्ववर्ती रचनाओं और उनके मतभेद सम्बन्धी उल्लेख ध्यान देने योग्य हैं । उनका यहां पर्यालोचन करके देखा जाय कि वे कहां तक यतिवृषभके कालनिर्णयमें हमारी सहायता कर सकते हैं। (१) अग्गायणिय ( लोयविणिच्छयमग्गायणिए ४-१९८२) यह उल्लेख बारहवें श्रुतांग दृष्टिवादके अन्तर्गत १४ पूर्वोमेंसे द्वितीय पूर्व अग्रायणीयका ज्ञात होता है । प्राचीनतर प्राकृत ग्रंथों में इसका रूप अग्गाणीयं या अग्गेणियं पाया जाता है । यदि ऊपर निर्देशानुसार हम सन्धिव्यंजनको पूर्व पदसे पृथक् करके उत्तर पदके साथ जोड़ दें तो पाठ 'मग्गायणिए' हो जाता है जो यथार्थतः । अग्गायणिए 'का ही बोधक है । ऐसा प्रतीत होता है कि तिलोयपण्णत्तिमें उपलब्ध सग्गायणी (४-२१७, १८२१, २०१९), संगायणी (८-२७२ ), संगाइणी (४-२४४८), संगोयणी ( ४.२१९) व संगाहणी (८-३८७ ) केवल अक्षरसाम्य आदिसे उत्पन्न उसीके भृष्ट पाठ मात्र हैं । जब कि इस रचनाका उसके मतभेदोंके स्पष्ट कथन सहित इतने वार उल्लेख किया जाता है, तब इसका यही अर्थ हो सकता है कि तिलोयपण्णत्तिकारको अग्रायणीय पूर्वका सविवरण वृत्तान्त उपलब्ध था। (२) दिढिवाद ( दृष्टिवाद ) के तीन स्पष्ट उल्लेख प्रस्तुत ग्रंथमें पाये जाते हैं१-९९, १४८, ४-५५। उनसे ग्रंथकारका उक्त आगमके विषयोंका विधिवत् ज्ञान नहीं तो विधिवत् परिचय तो अवश्य प्रकट होता है । यद्यपि दृष्टिवादके विषयों व प्रकरणोंकी सूचियां सुरक्षित पाई जाती है, तथापि जैन परम्परा इस विषयमें एकमत है कि इस श्रुतांगका ज्ञान क्रमशः लुप्त हो गया । कुछ आचार्यपरम्पराओंमें भले ही उसका यत्र-तत्र खण्डशः ज्ञान रहा हो । हाल ही में यह भी बतलाया जा चुका है कि जीवट्ठाण आदिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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