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________________ (८) त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना कषायप्राभृतक अध्ययनकी आचार्य परम्परा बतलाते हुये श्रुतावतारके कर्ता इन्द्रनन्दिने दो आर्या छंदोंसे इस प्रकार कहा है (१५५-१५६) पार्श्वे तयोर्द्वयोरप्यधीत्य सूत्राणि तानि यतिवृषभः । यतिवृषभनामधेयो बभूव शास्त्रार्थनिपुणमतिः ।। तेन ततो यतिपतिना तद्गाथावृत्तिसूत्ररूपेण । रचितानि षट्सहस्रग्रंथान्यथ चूर्णिसूत्राणि || इस प्रकार यतिवृषभने आचार्य नागदस्ति और आर्यमंक्षुसे ( कषायप्राभृत ) सूत्रोंका अध्ययन कर शास्त्रार्थमें निपुणता प्राप्त की। ( यहां यतिवृषभ शब्दपर श्लेष पाया जाता है वह ध्यान देने योग्य है; क्योंकि वह हमें तिलोयरण्यत्तिकी ऊपर उद्धृत गाथाका स्मरण कराता है।) फिर उसी कषायप्राभृतपर वृत्ति रूपसे उन्होंने चूर्णिसूत्रोंकी रचना की, जिनका प्रमाण छह हजार ग्रंथ था । यह वृत्तांत अब इन्द्रनन्दि द्वारा प्रसारित केवल मात्र एक परम्परा रूप नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अब हमें स्वयं जयधवला द्वारा उसकी प्रामाणिकता प्राप्त होती है । जयधवलाके आदिमें (वृत्तिसूत्रक कर्ता एवं ) आर्यमक्षुके शिष्य व नागहस्तिके साक्षात् शिष्य यतिवृषभका आशीर्वाद प्राप्त किया गया है, व अनेक वार उनके उस चूर्णिसूत्रका उल्लेख किया गया है जो अब वीरसेन व जिनसेनकृत जयधवला टीकामें सम्मिश्रित पाया जाता है । चूंकि तिलोयरणत्ति में ' यतिवृषभ ' का उल्लेख है तथा उसके प्रमाण निर्देशके लिये 'चूर्णि' का भी उल्लेख किया गया है एवं कषायप्रामृतपर यतिवृषभकृत चूर्णिसूत्र उपलब्ध है, अतएव अधिक संभवना यही है कि तिलोयपण्णत्ति व कषायप्राभृतके चूर्णिसूत्र के कर्ता एक ही हैं । पं. महेंद्रकुमारजीने जयधवला टीकाके अन्तर्गत चूर्णिसूत्रके मुख्य लक्षण प्रतिपादित करनेका कुशल प्रयत्न किया है । ये चूर्णिसूत्र अल्पाक्षर और गूढार्थ हैं । इसी कारण उच्चारणाचार्यको उनका अर्थ अधिक स्पष्ट करने की आवश्यकता पड़ी तथा वीरसेन व जिनसेनने उस रचनाके विषयको पूर्णतया समझाने के लिये उसे दशगुना विस्तार दिया । यतिवृषभकी अर्थव्यक्ति व स्पष्टीकरणकी शैली परम्परानुसरिणी है । उन्होंने आठवें पूर्व कर्मप्रवाद व द्वितीय पूर्वकी पंचम वस्तुके चतुर्थ प्रामृत कर्मप्रकृतिका उल्लेख किया है । उन्होंने आर्यमक्षु और नागहस्तिमें परम्परा मतभेदका भी उल्लेख किया है, तथा यह भी कहा है कि उनमें नागहस्तिका मत परम्परा-सम्मत होनेसे अधिक ग्रहणीय है । उच्चारणावृत्तिमें बहुधा चूर्णिसूत्रका विस्तार पाया जाता है, यद्यपि अनेक स्थलोंपर उनमें भी परस्पर मतभेद है। यतिवृषभकी अन्य रचना करणस्वरूप या षट्करणस्वरूपके विषयमें हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। किन्तु तिलोयपण्णत्तिमें कर्ताने कुछ गाथाएं दी हैं जो ‘करण-सूत्र' या 'करण गाथा' कहलाती है । ' करण-कुशल' (ति. प. १,११६) शब्द भी ध्यान देने योग्य है, क्योंकि उससे करणका अर्थ गणितके ' फार्मूला' या संक्षिप्त सूत्र जैसा सूचित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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